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मृत्यु |
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इस घटना के कुछ दिन पीछे अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत् १७८८ ( सन् १७३१ ) - के दिन इन्होंने अपने पुत्रों व मंत्रियोंको एकत्र किया। प्रातःकालका समय था । महाराज स्वयं मोतीबागमें एक संगमर्मरकी चौकीपर बैठे हुए थे। उनके शरीरपर एक जामा पड़ा हुआ था और मुखमण्डल प्रसन्न किन्तु गम्भीर प्रतीत होता था ।
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उन्होंने अपने पुत्रोंको राजनीतिकी शिक्षा देनी आरम्भ की। जिन जिन बातों से राज्योंकी जड़ दृढ़ और जिनसे दुर्बल होती है उनको समझा दिया और अन्तमें उनको परस्पर ऐक्यभावसे रहने की प्रेरणा की । तत्पश्चात् महाराजने अन्य उपस्थित सज्जनोंको नीतिकी शिक्षा दी और उनको कर्त्तव्यपालनमें दृढ़ रहने के लिये समझाया अन्तमें उन्होंने कुछ धर्मशिक्षा दी संसारकी असारता, ईश्वरकी सत्ता और मोक्षकी उपादेयतापर बहुत ही सुबोध और रुचिकर व्याख्या की । यह सब कहकर श्रासनसे उठे और सदस्योंको वहीं रहने का आदेश करके जामा चौकीपर उतार कर आप न जाने कहाँ दक्षिणकी ओर चले गये। फिर उनका पता न लगा !
मेरी समझमें इस बातका तात्पर्य यह है कि उन्होंने उक्त तिथिको संन्यास धारण कर लिया । प्राणनाथजीके शिष्य तो थे ही, स्वयं भी इतने धार्मिक थे कि उस पन्थेवाले इनको गुरू मानते थे। ऐसी अवस्थामें यह बहुत सम्भव है कि इस समय इनके चित्तमें ऐसा विचार आया हो कि शास्त्र के निर्देशानुसार अब संन्यास लेना ही श्रेयस्कर है । सम्भव है कि किसी ब्राह्मणके मुखसे किसी वैराग्यविषयक वाक्यको सुन कर यह इच्छा
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