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महाराज छत्रसाल।
कार्य करने की चेष्टा करूँगा। परन्तु जिस स्वातंञ्चको मैंने इतने कष्टसे उपार्जित किया है मैं उसे खोनेके लिये प्रस्तुत नहीं हूँ। मुझे किसीके अधीन रहनेकी आवश्यकता नहीं है। सिवाय ईश्वरके मैं और किसीको अपना स्वामी मान नहीं सकता। 'मनसबदार होइ को काको । नाम बिसुंभर सुन जग बांको।'
-(लाल) इसका प्रत्युत्तर बादशाहसे कुछ भी न बन पड़ा। महाराज छत्रसाल भी दो चार दिन दिल्ली रह कर फिर मऊ लौट आये।
१८. पेशवासे भेंट। लड़ाई झगड़ेसे छुट्टी पाकर छत्रसाल देशके प्रबन्धमें लगे। उनकी शासनपद्धतिका कुछ उल्लेख आगे किया जायगा। उन्होंने राज्यको कई प्रान्तोंमें विभक्त करके एक एक प्रान्त एक एक लड़केको दे रक्खा था।
संवत् १७८३ (सन् १७२६)-में इनके पुत्र जगतराजके हाथमें जैतपुरका शासन था। सहसा फर्रुखाबादके नव्वाब महम्मद खाँ बंगशने इनपर आक्रमण किया । नादपुरवाके पास लड़ाई हुई। लगभग बारह सौ बँदेले मारे गये और जगतराज स्वयं घायल होकर गिर गये। बंगशकी जीत हुई। यह समाचार पाते ही इनकी धर्मपत्नी रानी अमर कुमरी स्वयं हाथीपर चढ़कर लड़नेके लिये पायी । उनको लड़ते देखकर बुंदेलोका हृदय फिर बढ़ गया और कई घण्टोंकी विकट लड़ाईके पश्चात् नवाबके सिपाही भाग गये ।
थोड़े दिनों में नवाबने एक सेना फिर भेजी। इसके नायक
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