Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 83
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org R महाराज छत्रसाल । जनक, छत्रसालको इनके ऊपर अटल श्रद्धा थी । वे जब समय मिलता इनके पास जाते और सत्सङ्ग करते । प्रत्येक प्रकारकी धर्मचर्चा होती - साँख्य, वेदान्त, योग, भक्ति सबही गूढ़ तत्वों पर विवेचना की जाती । परन्तु उन्होंने छत्रसालको कभी कर्मयोगसे भ्रष्ट करनेका प्रयत्न न किया । छत्रसाल गृहस्थ थे, राजा थे, हिन्दू जाति और धर्म के आधार थे । उनके कर्म्मपथ से विचलित होनेमें अनेक आपत्तियाँ थीं । इसमें धर्म की मर्यादा टूटती थी। निष्काम कर्म करना भी योगका एक बड़ा श्रंग है । जिस मनुष्यने अपने हृदयसे द्वेष और ईर्षाको निकाल दिया हो, जो सुख और दुःखमें समचित्त रहता हो, जो ब्रह्मज्ञान प्राप्तकर चुका हो उसके बराबर दूसरा व्यक्ति कामकर ही नहीं सकता । श्रीकृष्ण, रामचन्द्रजी, इसके उदाहरण हैं । लोकहितार्थ कर्म करना मनुष्यको साधारण कम्मोंकी भाँति बन्धनमें नहीं डालता । वह मोक्षप्राप्ति में सहायक होता है; क्योंकि उसमें वासनाका अभाव होता है । प्राणियों के कल्याणके लिये प्रयत्न करना ईश्वरके विराट् रूपकी प्रत्यक्ष पूजा है। “सर्वभूतमयः शिवः” "येनकेन प्रकारेण, यस्य कस्यापि जन्तुनः । सन्तोषं जनयेद्धीमान्, तदेवेश्वरपूजनम्" | और फिर कर्म न करने में एक और श्रापत्ति है, जैसा कि भगवानने गीता में कहा है – यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तद्देवेतरोजनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।" ज्ञानी पुरुषको कम्मोकी अपेक्षा नहीं। परन्तु उसकी देखादेखी अनेक पामर लम्पट भी कर्म छोड़कर बैठ जायँगे जिसमें उनका और जनता दोनोंका अकल्याण है। हमारे आजकल के साधुसमुदायको देखनेसे Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal

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