Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 84
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir योगिराज प्राणनाथ। - NarwANA ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। इन लाखो व्यक्तियों में अधि. काँश स्वार्थी, जड़बुद्धि और उन्मार्गगामी हैं जो जोककी भाँति देशकी सत्ता चूस रहे हैं, परन्तु ऊपरी व्यवहारकी समताके कारण इनका अच्छे साधुओसे अलग किया जाना कठिन काम है। इसीलिये सब कुछ धर्मोपदेश करते हुए भी प्राणनाथजीने छत्रसालको कभी गृहस्थाश्रम त्याग करनेकी शिक्षा न दी प्रत्युत् सदा उनको उनके कर्तव्यमें दृढ़ करते रहे। जो हिन्दू राजाओका स्वाभाविक धर्म है उसीमें उनकी बुद्धि पुष्ट करते रहे । इन्होंने छत्रसालको विजयका आशीर्वाद दिया । कहा जाता है कि पन्ना प्रान्तमें हीरे उन्हींके आशीर्वादसे मिलते हैं। इन्हींके आदेशका पालन करके छत्रसाल संवत् १७४२ में दिग्विजय करने निकले थे जबकि जैसा कि पूर्व अध्यायमें लिस्बा जा चुका है, इनसे सैयद लतीफ़ और तहव्वरखाँसे लड़ाई हुई और सागर आदि नगर इनके हाथ आये, इन्होंने संवत् १७४४ में छत्रसालका अभिषेक कराया। संवत् १७६५ में अर्थात् प्राणनाथजीके जीवनकालमें ही छत्रसालजीने उनका समाधिस्थान बनवाया। इसपर लछीचन्द नामक एक सेठने सोनेका एक पञ्जा रखवाया जिसका मूल्य कई लाख रूपया बतलाया जाता है। संवत् १७६हमें बाई जूराजका देहान्त हुआ और प्राणनाथजीके समाधिमन्दिरसे कुछ दूरपर उनकी भी छतरी बनवा दी गयी । इसके पास ही प्राणनाथजीके गुरुका स्मारक एक भवन बना हुआ है। ये महात्मा यहाँ कभी आये न थे पर प्राणनाथजीने गुरुभक्तिके कारण यह मन्दिर बनवाया था। आषाढ़ कृष्ण तृतीया संवत् १७७१में छानवे वर्षकी For Private And Personal

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