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महाराज छत्रसाल ।
१२. राज्याभिषेक। यद्यपि अब छत्रसालके पास सभी राजकीय सामग्री उपस्थित थी और वे एक बड़े प्रान्तपर शासन कर रहे थे, तौभी अभीतक उन्होंने राजाकी उपाधि धारण नहीं की थी। दिग्विजयके दो वर्ष पीछे यह सम्मति हुई कि अब नियमपूर्वक अभिषेक किया जाय। छत्रसाल स्वयं कुछ स्थिर न कर सके थे; परन्तु प्राणनाथजीने अनुरोध किया कि इस अनि. श्चित परिस्थितिको शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहिये। जो कार्य प्रारम्भ किया गया था उसका उचित परिणाम यही था कि छत्रसाल स्वयं मुगलमुक्त प्रान्तोंका प्रबन्ध अपने हाथमें लेकर उनको हिन्दुशासनका सुख अनुभव करावें।
निदान, काशी आदि स्थानोंसे पण्डित बुलवाये गये और संवत् १७४४ (सन् १६८७)-में वेदोक विधिके अनुसार अभिषेक किया गया । शास्त्रके निर्देशानुसार अनेक पुण्यकर्म किये गये और अब छत्रसाल, वस्तुतः तो थे ही, नामतः भी अपने विस्तृत राज्यके महाराज हो गये ।
इस अवसरपर ओरछावालोसे एक हल्की छेड़छाड़ हुई। जैसा कि पहिले लिखा जा चुका है, बुन्देलोंके आदि पुरुष काशीसे आये थे । बहुत कालतक ओरछा-नरेश काशीश्वरकी उपाधिसे पुकारे जाते थे। बुन्देलखण्डमें यह प्रथा थी कि जिसको ओरछासे तिलक मिले वही राजा कहलाये। जब छत्रसालने विनाओरछाके पूछे ही अपना अभिषेक करा लिया तो उन्होंने हँसीमें यह पद लिख भेजा
ओरछेके राजा अरु दतियाके राई । अपने मुँह छत्रसाल बने धना बाई ॥
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