Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 59
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराज छत्रसाल । उसने स्वाधीनतावाला टुकड़ा उठाया । छत्रसालका विश्वास सार्थक हुमा। कितनी छोटीसी बातपर एक देशका भाग्य निर्भर था; परन्तु ईश्वरने अपने भक्तकी बात रख दी। अबसे सब लोगोंको यह दृढ़ विश्वास हो गया कि अन्तमें हमारी ही विजय होगी । उस समयसे बलदिवान छत्रसालके अनुयायी हो गये और बराबर उनका साथ देते रहे। परन्तु उस समय किसी कारण वे छत्रमालके साथ न जा सके। वहीं औरंगाबाद रहकर उन्होंने धन और सिपाही एकत्र करना प्रारम्भ किया ।छत्रसालको उन्होंने उचित समयपर मिलने का वचन देकर बुन्देलखण्डकी ओर बिदा किया । वहाँसे चलकर छत्रसाल देश आये । बलदिवानके मित्र जानेसे इनका बहुत कुछ लाभ हुना था। बहुतसे मनुष्य इनके सहकारी हो गये और जो क्षति शुभकर्णके द्वेष से होती उसकी पूर्तिका यथोचित प्रबन्ध हो गया। मोर पहाडीपर जो इनके जन्मस्थानके निकट ही है, इन्होंने अपना डेरा डाला। वही स्थान इनकी प्रथम छावनी हुआ । यहाँपर धीरे धीरे इनके पिताके पुराने साथी या उनके वंशज इनसे मिलने लगे और भावी युद्ध के लिये सामग्री-सम्पादन होने लगा। ___इसी समय इनको एक ऐसी दिशासे सहायता मिली जिसकी कुछ भी आशा न थी। ओरछाके राजा सुजानसिंहजीने इनको बुलवाया। यद्यपि काम उनका था और छत्रसालके घरानेके साथ ओरछावालौने चम्पत रायजीके समयमें बहुत बुरा बर्ताव किया था पर छत्रसालने इन बातोका विचार न किया और उनसे मिलना ही उचित समझा । दूसरा कोई होता तो उसे यह भी भय होता कि कदाचित् पुराना बैर निकालने के लिये मेरे साथ भी वैसा ही विषादिका प्रयोग किया For Private And Personal

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