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योगिराज प्राणनाथ।
१०. योगिराज प्राणनाथ। ___भारतवर्ष में प्राचीन कालमें यह प्रथा थी कि ऋषि मुनि संसारी मनुष्यों को धर्मका उपदेश किया करते थे। धर्मशिक्षासे केवल उस शिक्षासे तात्पर्य नहीं है जो मुमुक्षु पुरुषको मोक्षका मार्ग दिखलाती है। यह मोक्षका मुख्य अङ्ग है इसमें सन्देह नहीं परन्तु महर्षि कणादका कथन है कि, 'यतो. ऽभ्युदयनिश्रेयससिवि: स धर्मः'। धर्मशिक्षासे सांसारिक और पारलौकिक दोनों उन्नतियाँ प्राप्त होनी चाहिये। जबतक इस देशमें इस प्रकारका सिद्धान्त प्रचलित था तबतक इसकी कीर्ति सारी पृथ्वीमें फैली हुई थी। परन्तु कई कारणोंसे हमारे यहाँ धर्म शब्द का अर्थ सङ्कीर्ण हो गया। उसका सम्बन्ध केवल पारलौकिक तत्त्वोंसे रह गया और साधु महात्माोंने जो स्वयं विरक्त होनेके कारण निर्धान्त, निष्पक्ष और सर्वोत्तम शिक्षा दे सकते थे, इस कामसे हाथ खींच लिया। फल यह हुआ कि हमारी सांसारिक गति भी अंधों कीसी हो गयी। उस उत्तेजना और उत्कृष्टताके चले जानेसे, जो कि धाम्मिक शिक्षासे मिलती हैं, वह मन्द और अधमा होती गयी। सदुहेश्योंका लोप हो गया और स्वार्थपरताने डेरा डाल दिया। उन्नतिके स्थानमें अवनतिने देशमें घर किया और उत्साह और दृढ़ प्रतिज्ञताके प्रभावने पुनरुत्थानकी आशाको अंकुरित होने का अवसर ही न दिया ।
परन्तु जब कभी साधु महात्माओंने प्राचीन प्रथाका अनु. सरण करके धर्मकी वास्तविक व्याख्या की और उसका उपदेश अपने अधिकारी शिष्योको दिया, राष्ट्रका सर्वथा कल्याण ही हुआ । दक्षिणके साधु-सम्प्रदाय-भास्कर समर्थ राम
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