Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 76
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रनदूला और तहव्वर खाँ। ६५ - राजपूत, जोकि इस समयतक मुग़ल राज्यके श्रद्धालु रक्षक थे उसके घोर शत्रु हो गये थे। जोधपुरके राजवंशके साथ जो कृतघ्नाचार औरङ्गजेबने करना चाहा था उसके कारण राजपूत मात्रका उसपरसे विश्वास जाता रहा था । महाराष्ट्रमें शिवाजीका बल प्रतिदिन बढ़ता जाता था और महरठोकी समृद्धिके साथ ही साथ मुग़लोंकी श्री भी घटती जाती थी। ऐसे आपत्तिपूर्ण कालमें बुंदेलोके विद्रोहने औरङ्गजेबको अस्थिर कर दिया। उसने समझ लिया कि यदि यही दशा रही तो थोड़े ही दिनोंमें सारा भारत मुग़लोंके हाथसे निकल कर हिन्दुओंके हाथमें चला जायगा। इन सब बातों में स्वयं उनका दोष कहाँतक था यह बात सम्राट्की समझमें भूलकर भी न आती थी । यदि वे थोडासा विचार करनेका कष्ट करते तो यह बात जाननी कुछ कठिन न थी कि यह उन्हींकी द्वेषपूर्णा नीतिका फल था कि हिन्दू लोग मुग़लोंके शत्रु होरहे थे। यदि जज़ियाका कर हिन्दुओंपर न लगाया जाता, यदि हिन्दुओके मन्दिर न तोड़े जाते, यदि वे स्थानच्युत न किये जाते तो ऐसी दशा कदा. चित् न पाती । 'परन्तु विनाश काले विपरीत बुद्धिः। अपनी नीतिको बदलना तो दूर रहा जब उसका परिणाम बुरा होने लगा तो औरङ्गजेबने और भी कड़ाईसे साथ काम लेना प्रारम्भ किया। जब दिल्लीके हिन्दू प्रार्थना करनेके लिये महलके सामने गये तो वे मस्त हाथीसे कुचलवाये गये। जब किसी शासनके बुरे दिन प्राते हैं तो वह इसी प्रकार प्रजाको संतुष्ट करनेके स्थानमें उनको बलसे दबानेके प्रयत्नमें तप्तर हो जाता है। कुछ कालतक बल के प्रयोगसे सफलता अवश्य मिली, परन्तु अन्तमें जैसा कि सदैव होता है, फल उल्टा ही हुआ For Private And Personal

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