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महाराज छत्रसाल ।
सहायता न करनेपर उनसे द्वेष भी न करते; पर द्वेष करनेमें लाभ था । औरंगजेबको प्रसन्न करनेका यह एक प्रबल साधन था और ऐसे अवसरपर स्वार्थी पुरुष सदैव ही धर्मको जलाञ्जति देकर अपने स्वदेशबन्धुओका गला कटवाना अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं । यह साधारण नीति है । स्वदेश सेवकोंको जितनी हानि विदेशी जेताओंसे नहीं पहुँचती उतनी स्वदेशी स्वार्थी पामरोंसे पहुँचती है।
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अस्तु, जब छत्रसालने देखा कि इनसे कुछ काम नहीं निकल सकता तो उनको वहीं छोड़ कर घरकी ओर लौटे ।
रास्ते में औरंगाबादमें ये फिर ठहरे। यहाँ इनके चचेरे भाई बलदिवानजी रहते थे। एक जगह तो छत्रसाल विफल हो चुके थे परन्तु यहाँ उन्होंने फिर चेष्टा की । सौभाग्यकी बात है कि उनका प्रयत्न सफल हुआ। बलदिवान पहिलेहीसे मुगलोंसे रुष्ट थे और हिन्दुओंके साथ जो कुल्लित व्यव हार किया जा रहा था उसके कारण उनका चित्त खिन्न हो रहा था। छत्रसाल के शब्दोंने उनके हृदयमें शीघ्र ही प्रवेश किया। उन्होंने इनकी प्रतिज्ञाकी श्लाघा की और उसके साथ पूर्ण सहानुभूति दिखलायी । जहाँतक उनसे हो सकता था. उन्होंने इस पुण्यकार्यमें योग देनेका भी वचन दिया । पर उन्होंने एक शङ्का उपस्थित की। वह यह कि इन लोगों के पास समुचित सामग्री न थी और मुग़लोंके पास श्रमित शक्ति थी; और उनके सिपाहियोंकी संख्या भी बहुत बड़ी थी । बुन्देलखण्ड में भी बहुत ऐसे व्यक्ति थे जो छत्रसालके विरोधी थे । श्रोरछावालोंका विरोध चला ही आता था । ऐसी अवस्थामै विजयकी कहाँतक आशा की जा सकती थी ? यही प्रश्न बलदिवानने किया ।
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