Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 51
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४० महाराज छत्रसाल । राजनीतिक कारणोंसे दक्षिणकी ओर जानेमें रुकावट पड़ती थी । एक दो मनुष्योंके लिये तो कोई कठिनाई न थी; पर इतने व्यक्तियोंके लिये बहुत कुछ पूछताँछ ही नहीं प्रत्युत् रोक दिये जाने की भी संभावना थी । इसीलिये इनको कई युक्तियोंका अवलम्बन करना पड़ा, परन्तु अन्तमें ये राजधानीतक पहुँच ही गये। जो चौकियाँ शिवाजीने सीमाओं पर बैठा रक्खी थीं उनसे निकल जाने के अनन्तर फिर कोई विशेष कष्ट न था, क्योंकि तब कोई पूछता भी न था कि तुम कौन हो । कहा जाता है कि इनका पहिला परिचय शिवाजीसे इस प्रकार हुआ कि इनको यह सुन पड़ा कि शिवाजीको लवा लड़ानेका बड़ा शौक है। इनके पास भी एक अच्छा लवा था। दोनों पक्षी छोड़े गये और इनके लवेने शिवाजी के सभी प्रधान प्रधान लवोको लड़ाकर हरा दिया । इसपर शिवाजी बहुत प्रसन्न हुए। इनकी वीराकृति और मुख मण्डलकी प्रभाने उनके चित्तको पहिलेहीसे श्राकर्षित कर लिया था । अभिरुचि साम्यने और भी अच्छा प्रभाव डाला। उन्होंने इनका परिचय पूछा। उत्तर में उन्होंने अपनी वंशपरम्परा, बुन्देलखण्डका तत्कालीन इतिहास, अपने स्वर्गीय पिताका श्रात्मसमर्पण, अपना विचार और श्रनेका कारण सब कह सुनाया । सुनकर शिवाजीको अत्यन्त हर्ष हुआ । बुन्देलखण्डका इतिहास उनसे छिपा न था । राव चम्पतकी चिरस्मरणीया कथा उनको भली भाँति ज्ञात थी। ऐसे वीर पुरुष के पुत्र से भेंट करके उनका प्रसन्न होना स्वाभाविक था । इल बातसे उनका हर्ष और भी बढ़ गया कि पुत्र अपने पिताका अनुकरण करना चाहता है। शिवाजी स्वयं हिन्दू स्वातंत्र्य Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal

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