Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 53
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराज छत्रसाल । सहायताके विषयमें भी उन्होंने बहुत ही निःस्वार्थ और यथोचित परामर्श दिया। यदि कोई दूसरा स्वार्थी व्यक्ति होता तो वह छत्रसालको अपने यहाँ नौकर रख लेता और उनके सेनापतित्वमें बुन्देलखण्डमें सेना भेजकर अपना राज्य बढ़ाता । पर शिवाजीको यह अभीष्ट न था। उन्होंने छत्रसालको यह भली भाँति समझा दिया कि सेवक बनकर यशका विस्तार नहीं हो सकता । शिवाजीकी सेवामें रहकर छत्रसाल चाहे कितनी ही वीरता प्रदर्शित करते, कितने ही प्रान्त जीतते, कितनी ही क्षति मुग़लोको पहुँचाते, पर नाम उनके स्वामीका ही होता। यह सम्भव है कि उनकी बदला लेनेकी इच्छा पूर्ण हो जाती और क्रोधाग्नि शान्त हो जाती पर अन्तमें लाभ शिवाजीका ही होता और बुन्देलखण्ड के लिये भी यह बात कुछ बहुत उत्तम न होती। मरहठे यद्यपि हिन्दू थे, परन्तु बँदेलोसे भिन्न तो निःसन्देह ही थे । मरहठोंके अधीन रहकर भी बुंदेलोको सच्चे स्वराज्यका सुख कभी न मिलता। शृङ्खला सदैव ही कष्ट देती है. चाहे वह सोनेकी हो या लोहेकी। सच्चा स्वराज्य वही है जिसमें शासन पूर्णतया सजातीयोंके हाथमें हो । बिना ऐसे प्रबन्धके बुंदेलोके दुःस्त्रका अभाव कदापि नहीं हो सकता था। 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।' यही सोचकर शिवाजीने छत्रसालको स्वतंत्र प्रयत्न करनेका परामर्श दिया। साथ ही इसके, उन्होंने उनको यथावश्यकता आर्थिक सहायता देने का बचन दिया। शिवाजीकी ओजस्विनी वाणीने छत्रसाल पर पूर्ण प्रभाव डाला। उन्होंने इस शिक्षाके अक्षर अक्षरको श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया और शिवाजीके कथनानुसार स्वतंत्र प्रयत्न For Private And Personal

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