Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir छत्रसालका लड़कपन | लखण्ड में क्षत्रियोंमें विद्याका विशेष प्रचार न था। आगे चल कर छत्रसालने काव्य के लिये बहुत अभिरुचि दिखलायी और श्राप भी कभी कभी छन्द रचना करते थे, इससे सम्भव है कि इस समय उनको इस विषयकी कुछ विशेष शिक्षा मिली हो या कमसे कम उन्होंने स्वयं काव्यके कई ग्रन्थ देखे हो । तेरह वर्ष की अवस्थामें इन्होंने अपने घर जानेका विचार किया। बचपन से ही ये यातो जङ्गल पहाड़ोंमें रहते थे या नानिहाल में; परन्तु अब बड़े होनेपर इनको पैत्रिक घर जाने . की इच्छा होनी स्वाभाविक बात थी । ये अकेले चल पड़े । ऐसा कहते हैं कि रास्ते में ये क्षुधासे अत्यन्त व्याकुल हुए, पर देवात् इनके पिताका एक पुराना भृत्य मिल गया जिसने इनकी बड़ी सहायता की और साथ जाकर इनको पहुँचाया । महेवेमें इनके चचा सुजान रायजी थे । ये एक शान्त प्रकृति के साधारण व्यक्ति थे। इन्होंने कभी छत्रसालको देखा न था; परन्तु परिचय पाते ही बड़े श्रादरके साथ सत्कार किया और बड़े प्रेमके साथ रक्खा । छत्रसालको फिर कुछ पितृप्रेमका स्वाद आने लगा और एक प्रकारसे सुखके साथ दिन बीतने लगे। इनकी शिक्षाका भी प्रबन्ध कर दिया गया और इन्होंने उस समयकी परिपाटीके अनुसार एक भद्र पुरुषको जितना जानना चाहिये था, पढ़ लिख लिया । For Private And Personal २७ शास्त्रविद्या के साथ साथ इनको शस्त्रविद्याकी भी समुचित शिक्षा दी गयी। उस समय जितने प्रचलित शस्त्र थे, सबका ही प्रयोग इनको बतलाया गया और थोड़े ही कालमें ये इन सबके चलाने तथा अश्वारोहण में बहुत ही निपुण हो गये । शरीर सुन्दर और सुडौल तो पहिलेहीसे था, इस व्यायामसे और वयके प्रभाव से और भी गठीला, सुदृढ़ और कान्तियुक्त होगया ।

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