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महाराज छत्रसाल।
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. इस प्रकार चचाके साथ रहते हुए इनको तीन वर्ष बीत गये और ये सोलह वर्षके हुए। इस बीचमें इन्होंने जो कुछ शिक्षा पायी थी, उसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। इनके विचारोंका भी बहुत कुछ विस्तार हुआ था। हृदयमें वीरो. चत भावोंकी वृद्धि हो रही थी और उनके प्राकृतिक गुणों का, समय पाकर, क्रमशः विकास हो रहा था। देशका सारा इतिहास उनको विदित था और अब वे अपने मातापिताकी मृत्युके कारणों और साधनोंसे भी पूर्णरूपेण परिचित थे। मुगलोकी वृद्धि देख देख कर उनका हृदय नप्त होता था। बदला लेनेकी तीव्र इच्छा उनको बार बार उत्तेजित करती थी। उनके उत्साहपूर्ण हृदयको हिन्दुओं की, विशेषतः बुंदेलोकी अवनति देखनेसे चोट लगती थी । परन्तु स्वयं उनके वंशका इतिहास यह बतला रहा था कि इस दुरवस्थाका मूल कारण हिन्दुओं का स्वभाव ही है। हमारे अनैक्य, परस्पर के क्षुद्र विरांधने ही हमको एक जगद्विजयी सर्वश्रेष्ठ जातिकी पदवीसे गिराकर तुच्छ पराश्रयी जातियों की कोटिमें डाल दिया है। ऐसे विचार हृदयको नैगश्यसे भर देते हैं। यह कब सम्भव है कि हिन्दू जाति अपनी चिरकालसे उर्जित प्रासुरी सम्पत्तिका परित्याग करके अपने पुनरुत्थानके लिये चेष्टा करे ! उस समय भी इस जनताके पारस्परिक द्वेषने ही इसकी सारी शक्तियोंको लुप्तप्राय कर रखा था। जो हाथ स्वदेशरक्षामें उठना चाहिये था वह स्वदेश-संहार में अग्रसर होता था ! जिस वलसे विधर्मीका शिरच्छेदन होना चाहिये था उसके द्वारा अपने भाइयोंका गला काटा जाता था!
ये ऐसे विचार थे कि साधारण मनुष्यके साहस को क्षण
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