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मुगलोंकी सेवा।
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इनके आनेके समाचारसे दुःख हुआ। अभीतक वे एक हिन्दू राजाके अधीन काम कर रहे थे पर अब उनको एक मुसलमानके आदेशोंको पालन करना होगा। यद्यपि जयसिंह मुग़लोंके ही सेवक थे, फिर भी उनके साथ काम करनेमें उतनी ग्लानि न थी जितनी कि अब होगी। जिस निन्दित कार्यको करने ये लोग जा रहे थे उसका पूर्णरूप अब इनको स्पष्ट देख पड़ने लगा। एक मुगल सम्राट्की राज्यवृद्धिके लिये एक मुग़ल सेनापतिके साथ अनेक हिन्दू वीर इसलिये जा रहे थे कि एक हिन्दू राजाका सर्वनाश करके उसको राज्यभ्रष्ट कर दिया जाय या कमसे कम उसका स्वा. तंत्र्य छीन कर उसे मुग़लोको कर देनेवाला बना दिया जाय!
छत्रसाल ऐसे पुरुषके लिये यह बात बड़ी लजाकी थी। जो पुरुष स्वयं हिन्दू स्वातंत्र्यका पक्षपाती हो और मुग़लसमृद्धि जिसके हृदयको दग्ध कर रही हो वही पुरुष अपने विचारोंके विपरीत कार्यमें तत्पर हो! जो बुंदेलोंको स्वराज्य देना चाहता हो वही देवगढ़वालोको पारतंत्र्यजालमें बद्ध करना चाहे ! इसी प्रकारके विचारोंने छत्रसालके चित्तको क्षुब्ध कर दिया और उन्होंने वहाँसे चले जाना चाहा पर अङ्गदरायजीने रोका और बहुत कुछ समझा बुझाकर कमसे कम उस युद्धभर ठहरनेपर बाध्य किया।
अस्तु, बहादुरखाँ देवगढ़के पास पहुँचे और गढ़ घेरा गया। भीतरसे देवगढ़के राजा राजपूतोंकी सेना लेकर बाहर निकले। इनको विदित था कि मुगलोंकी अधीनताले मृत्यु ही भली होती है। फिर, जो सिपाही स्वदेश और स्वजातिके गौरवकी रक्षाके लिये लड़ता है वह केवल वेतनके लिये लड़ने वालोंकी अपेक्षा कहीं अधिक साहस और पराक्रम दिखलाता
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