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महाराज छत्रसाल।
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जलाञ्जलि देने और अपने ही भाइयोंका गला काटनेके लिये तत्पर रहनेसे ऐसा कोई भी संसारी सुख न था जो मुगल सेवामें न मिल सकता हो । जयपुर और जोधपुरके राजाओंके उदाहरण छत्रसालकी आँखोंके सामने थे। मुग़लोके साथ रहते रहते इनका द्वेष भी कुछ कम हो गया था और आश्चर्य नहीं कि देवगढ़में निरपराधी हिन्दुओके स्वातंत्र्य-संहार रूपी दुष्कर्ममें योग देनेसे इनके अन्तःकरणमें मलीनता आगयी हो
संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ! सारांश यह कि इनका चित्त चञ्चल हो गया और उसमें मुगलसेना द्वारा स्वस्थितिवर्द्धनकी दुराशाने घर कर लिया। परन्तु यह कोई नयी बात नहीं थी। संसारके, विशेषतः भारतके इतिहासमें, इस प्रकारके कितने ही उदाहरण भरे पड़े हैं । न जाने कितने योग्य पुरुषोंने तुच्छ सुखोंके लिये स्वदेशसेवाको लात मार दी है। यदि ऐसान होता तो आज भारतकी न जाने क्या परिस्थिति होती । सौभाग्यकी बात तो यह है कि कुछ कालके बाद छत्रसालके विचारोंने फिर पलटा खाया।
अस्तु ऐसे विचारोंको लेकर छत्रसाल दिल्ली पहुँचे और वहाँ इनको हिन्दू जातिके प्रकृत शत्रु, बुंदेल-वंश-मूलोच्छेदक सम्राट औरंगजेबके दर्शन हुए। चाहिये तो यह था कि उसको देखते ही इनके विचार परिवर्तित हो जाते पर इस समय ये लोभान्ध हो रहे थे।
दिल्ली में इनकी एक भी इच्छा पूरी न हुई । न तो कोई उपाधि मिली न धन मिला, न जागीर हाथ लगी। बहादुरखाँ और उसके मुसलमान अनुगामियोको निःसन्देह बहुत कुछ परितोषिक मिला। इस बातसे इनका चित्त स्वाभवतः खिन्न हुआ। जिन आशाओंके वशीभूत होकर इन्होंने स्वकर्त्तव्यत्याग
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