Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 46
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मुग़लोकी सेवा । सायङ्कालके पीछे ढूँढते ढूंढते छत्रसाल के साथी उनके पास पहुँचे । परिचित व्यक्तियोंको देखकर घोड़ा चुप खड़ा रहा। अच्छे होनेपर छत्रसालने इसे 'भले भाई' की उपाधि दी थी और मरनेपर उसकी समाधि भी बनवा दी। युवा पुरुष और स्वस्थ शरीर तो थे ही, थोड़े ही दिनों में इनके घाव भर गये और ये फिर पूर्ववत् भले चड़े हो गये । बहादुरखाँ युद्धके पीछे दिल्ली जा रहे थे अतः छत्रसाल भी उनके साथ हो लिये । पर अब इनके चित्तको अवस्था पहिलीसी न थी । इनके हार्दिक भावोंमें आकाश पातालका अन्तर पड़ गया था। अब जातीयताकी तरंगें उतने वेगके साथ नहीं उठती थीं और स्वातंत्र्यका प्रेम श्रव उतना तीव्र नहीं था। नवयुवक तो थे ही, संसारी सुख और वैभवकी इच्छा भी वित्तमें रह रहकर उठती थी। स्वातंत्र्यका प्राप्त करना कुछ हँसी खेल नहीं है। उसके उपार्जन में अनेक प्रकारके शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक कष्ट का सामना करना होता है। महाराणा प्रताप, जुझारसिंह या स्वयं उनके पिताको जो जो दुःख स्वगौरवरक्षा में उठाने पड़े थे वे इनको अविदित न थे। फिर औरङ्गजेब ऐसे प्रयत्न शत्रु से लड़कर विजयकी आशा रखना भी धृष्टता मात्र प्रतीत होती थी । यह भी ये भली भाँति जानते थे कि स्वयं इनके सजातियों में अनेक पुरुष इनके विरोध के लिये प्रस्तुत बैठे थे, जिनसे मुगलों को अतुल सहायता मिलती । 'घरका भेदिया लङ्कानाश ! ' For Private And Personal ३५ दूसरी ओर लाभ ही लाभ दीखता था। मुगलोंका साथ देनेसे यश और कीर्ति की वृद्धि होनी सम्भव थी। जिस जिलने मुगलों की सेवा की, राजा या महाराजा बन गया और धनिकोंमें अग्रगण्य हो गया । अपने देश, धर्म और जातिके गौरवको

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