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(११) पहिले की है । वैदिक-धर्म में जो विचारपूर्ण क्रान्ति शताब्दिया तक होती रही उसी का स्थिररूप हिन्दू-धर्म है । हिन्दू-धर्म ने श्रमण और ब्राह्मण, आय और अनार्य संस्कृतियों का मिश्रण करक धर्म का और समाज का एक सुन्दर रूप जगत के सामने रक्ग्वा था। गीता में उसी का बीज है । 'वंद वादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः " कह कर वैदिक-धर्म की संकुचितता का दृसंर अध्याय मे जोरदार विरोध किया गया है।
___ गीता की लोकप्रियता देख कर हरएक सम्प्रदाय के आचार्य ने इस महान ग्रंथ का मन-सम्मत अर्थ निकाला है किन्तु यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि गीता-ज्ञान का ध्यय कर्मयोग का प्रतिपादन ही है, अगर श्री कृष्ण का कोई अन्य योग्य इष्ट था तो युद्ध से विरक्त मोह--युक्त अर्जन उम मुन कर घोर संग्राम के लिये तय्यार न हो जाता "क्षुद्र हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप' के उत्तर में करिष्ये वचनं तव ' की प्रतिज्ञा कर्मयोग के सिवाय और क्या हो सकती है !
श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण ऐतिहासिक हों या न हो परन्तु भारतीय साहित्य में, धर्म में और समाज मे वे इस तरह बम गये है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। संस्थापक सत्य-समाज ने उन्हें ऐतिहासिक महात्मा माना है । उनका जीवन ऐसा सर्वांग पूर्ण था कि विद्वानों ने 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयं' कहकर उन्हें भगवान का पूर्णावतार कहा है । वे ऐसे परमयोगी, बीर, सदाचारी, जनसेवक, सुधारक विचारक,