Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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सिरि-जइवसहाइरियविरहय-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं
सिरि-भगवंतगुणहरभडारओवइटुं कसा य पाहुडं
सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका
जयधवला
तत्थ
उत्तरपयडिद्विदिविहत्ती णाम विदिमो अत्याहियारो * जे भुजगार-अप्पदर-अवहिद-अवत्तव्वया तेसिमपदं ।
१. किमट्ठपदं णाम ? भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदावत्तव्बयाणं सरूवं तं परूवेमि त्ति भणिदं होदि । तं किमढे वुच्चदे १ अणवगयचदुसरूवस्स भुजगारविसओ बोहो सुहेण ण उप्पज्जदि त्ति तदुप्पायणटु वुच्चदे।
. * अब जो भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य पद हैं उनका अर्थपद कहते हैं।
६१. शंका-यहाँ अर्थपद से क्या तात्पर्य है ?
समाधान- भुजगार; अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यका जो स्वरूप है उसे कहते हैं यह इसका तात्पर्य है।
शंका-भुजगार आदिका स्वरूप किसलिये कहते हैं ?
समाधान-जिन्होंने भुजगार आदि चारोंका स्वरूप नहीं जाना है उन्हें भुजगार विषयक ज्ञान सुखपूर्वक नहीं उत्पन्न होता है, अतः भुजगारादि विषयक ज्ञानके सुखपूर्वक उत्पन्न करानेके लिये उनके स्वरूपका कथन करते हैं।
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