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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे अनेन विधिना सम्यग, विधायार्चा शुभे तिथौ । विधिवत्ता प्रतिष्ठाप्य, पूजयेत् प्रत्यहं नृपः ॥"
अर्थ-ज्यां कहिं धातुरस अधिक देखाय ते कानस पडे बराबर करी नाखे, नालकने पण छीणी बडे कापीने ते स्थल कानसथी ठीक करीने पछी प्रतिमाने उजालवी आ विधिथी चन्द्रबल पहोचतुं होय तेवा शुभ समयमा प्रतिमा तैयार करावी तथा विधि पूर्वक प्रतिष्ठा करावी राजा पूजा करे.
(१६) जिनचैत्यनिर्माणविषयक धार्मिकमर्यादा
कलिकाना प्रथम खंडमां जिनचैत्यनिर्माणने अंगे भूमि परीसाथी कलशलक्षण पर्यन्तनां सर्व आवश्यक अंगोनुं अने प्रतिमा निर्माण- निरूपण कयु छ पण ए बधुं शिल्पशास्त्रने अनुसरतुं छे, धर्मशास्त्रनी ए विषयमां शी मर्यादाओ छे ए पण जाणवू आवश्यक तो छ ज, एटले ए विषयर्नु शास्त्रीय निरूपण संक्षेपमां जणावीने ए विषयनो उपसंहार करीशं.
छल्ला श्रुतधर तरीके प्रसिद्धि पामेल आचार्य प्रवर श्रीहरिभद्र सरिजीए पोताना षोडश ग्रन्थमां जिनभवन निर्माण विषयक मर्यादा नीचे प्रमाणे बांधेल छे जे एमनाज शब्दोमां नीचे उद्धृत करीये छोये"न्यायार्जितवित्तेशो, मतिमान् स्फीताशयः सदाचारः। गुर्वादिमतो जिनभवन-कारणस्याधिकारीति ॥"
अर्थात्-न्यायोपार्जित धननो स्वामी, बुद्धिमान्, उदाराशय, सदाचारी अने गुर्वादिसंभत होय ते जिनभवन करावधानो अधिकारी थाय छे.
" कारणविधानमेत-च्छुडाभूमिदलं च दार्वादि।
भृतकानतिसंधानं, स्वाशयवृद्धिः समासेन ॥" अर्थ-शुद्धभूमि, शुद्धदल, भृतकानतिसंधान अने शुभाशय
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