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जीवन में परिवर्तन के बिना कोई अपरिवर्तनीय नहीं होता और अपरिवर्तन के बिना कोई परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन और अपरिवर्तन दोनों साथ-साथ चलते हैं। एक मूल में रहता है और एक फूल में रहता है। फूल हमें दिख जाता है। मूल गहरे में होता है। सामने नहीं दिखता। कभी-कभी कुछेक लोग मूल को उखाड़ने का प्रयत्न करते हैं। वे परिवर्तन को स्वीकार करते हैं। मूल को अस्वीकार करते हैं। कभी-कभी कुछेक लोग मूल पर ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित कर देते हैं
और सामने दिखने वाले फूल को अस्वीकार कर देते हैं। यह एकांगी दृष्टिकोण है।
अनेकांत ने दोनों को स्वीकृति दी। मूल का भी मूल्य है और फूल का भी मूल्य है। मूल को अस्वीकार नहीं किया जा सकता और फूल को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। कुछेक लोग फूल को नहीं, मूल को ही उखाड़ देते हैं। मूल और फूल
शहर के पास सुन्दर बगीचा था। उसमें एक स्थान पर लिखा था-फूल तोड़ना मना है। एक बालक आया। उसने मूल को ही उखाड़ना चाहा। माली ने देख लिया। वह दौड़ादौड़ा आया और बोला-'अरे ! क्या कर रहे हो? देखो क्या लिखा है ?' बालक ने कहा-'लिखा हुआ पढ़ लिया। लिखा है कि फूल तोड़ना मना है। मैं फूल नहीं मूल को ही उखाड़
जब मूल को उखाड़ दिया जाता है, तब फूल के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं आता। हम मूल को अस्वीकृत नहीं कर सकते। हमारा जीवन एक फूल है, दिखाई देता है। वह जीवन अनबूझ पहेली बना हुआ है। जीवन की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं, किन्तु बहुत सारी व्याख्याएँ फूल की व्याख्याएँ हैं। फूल तक पहुँचने वाली व्याख्याएँ हैं। मूल तक नहीं जाने वाली व्याख्या अधूरी होती है। फूल खिलता है, कुम्हला जाता है, गिर जाता है। आज खिलता है, कल कुम्हला जाता है। सारा परिवर्तन होता जाता है। मूल की व्याख्या किए बिना केवल फूल की व्याख्या करना बहुत खतरनाक होता है।
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