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जीवन में परिवर्तन होगा, यह होना चाहिए, वह नहीं होना चाहिए, तो यह हमारी भ्रांति होगी। यह विचार की प्रकृति व स्वभाव है। इसलिए हम विचार पर भी विचार कर रहे हैं, क्योंकि आदमी अच्छा सोचता है, बुरा भी सोचता है, विधायक सोचता है
और निषेधात्मक भी सोचता है, सृजनात्मक सोचता है और विध्वंसात्मक भी सोचता है। हम चाहते हैं कि निषेधात्मकता और विध्वंसात्मकता का पक्ष कम होता चला जाए। इसलिए विचार पर विचार कर रहे हैं, यह सोच रहे हैं कि कैसे सोचें?
इस प्रश्न में विचारों के परिष्कार की बात आती है। उसका उपाय है कि यदि हम निर्विचार और विचार का संतुलन कर सकें, तो विचार को विधायक बना सकते हैं, सृजनात्मक बना सकते हैं और विध्वंसात्मकता को कम कर सकते हैं। केवल विचार ही करेंगे तो यह संभव नहीं होगा, क्योंकि विचारों में टक्कर होगी, संघर्ष होगा। निर्विचार का पलड़ा जैसे-जैसे भारी होता जाएगा, विचार का शोधन और परिष्कार भी होता चला जाएगा, बीच में आनेवाले अवरोध कम हो जाएंगे। विचार के शोधन और परिष्कार का और कोई उपाय नहीं है।
पुराने जमाने में एक कम्बल होता था। उसका नाम था रत्नकम्बल । वह बहुत बढ़िया होता था। आज से ढाई हजार वर्ष पहले उसका मूल्य सवा लाख मुद्रा था। उस सस्ते जमाने में इतना भारी मूल्य! किन्तु वह वातानुकूलित कम्बल होता था। गर्मी में बहुत ठंडा और सर्दी में बहुत गर्म। उसकी धुलाई आग में होती थी। आग में डाल दो, कम्बल बिल्कुल साफ हो जाएगा।
किन्तु जब तक आग में धुलाई नहीं होती, कम्बल से मैल नहीं उतरता। विचारों के मैल की धुलाई भी पानी से नहीं होती। विचार से विचार की धुलाई नहीं होती। बुद्धि और तर्क से विचार की धुलाई-सफाई नहीं हो सकती। विचार के मैल दूर करने, विचार को निर्मल बनाने का एक ही उपाय है कि निर्विचार की आग में विचार को डाल दिया जाए, वह अपने आप निर्मल हो जाएगा। विचार के सारे मैल साफ हो जाने के बाद उसमें से सृजनात्मकता, विधायकता, ज्योति और आस्था निकलेगी। उसमें से पुरुषार्थ और पराक्रम निकलेगा। कोई संघर्ष नहीं निकलेगा।
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