________________
११०
जो सहता है, वही रहता है है? भगवान महावीर ने इस तथ्य को सूक्ष्मता से देखा । उन्होंने कहा, 'यह एक प्रकार से मारने का ही प्रयत्न है। पूरा काम लेना और आजीविका का शोषण करना, अहिंसा व्रत का दोष है।' व्रत व्यवस्था
प्रश्न हो सकता है, भगवान महावीर ने व्रतों पर इतना जोर क्यों दिया? कारण यही हो सकता है कि ये व्रत धार्मिक दृष्टि से जितने मूल्यवान हैं, सामाजिक दृष्टि से भी उससे कम मूल्यवान नहीं हैं। यद्यपि समाजशास्त्र, आचारशास्त्र आदि लिखे गए और उनमें अरस्तु, सुकरात आदि यूनानी दार्शनिकों को आधार बनाया गया। पता नहीं क्या बात है, किसी हिन्दुस्तानी लेखक ने महावीर की व्रत व्यवस्था को कभी आधार नहीं बनाया। इसका क्या कारण हो सकता है? उनका दृष्टिकोण संकीर्ण रहा है अथवा उन्हें सामग्री ही प्राप्त न हुई हो? प्राकृत भाषा का व्यवधान भी कारण हो सकता है। कारण कुछ भी हो, लेकिन इतना स्पष्ट कि महावीर की व्रत व्यवस्था आज भी अज्ञात है, अंधेरे में है। आज उसे प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। समाज में श्रम की स्थापना
अहिंसा व्रत का एक उपव्रत है कि मैं दूसरे का शोषण नहीं करूंगा। दूसरे का शोषण नहीं होगा, तो अपना श्रम बढेगा । आज श्रम के प्रति थोड़ा वैकल्प पैदा हो गया है। इसका एक कारण है, आदमी आराम चाहता है। दूसरा कारण यह मनोवृत्ति है कि मैं आराम करूँ और फल भी मुझे मिल जाए। यह एक मिथ्या धारणा बन गई कि श्रम करने वाला छोटा होता है और श्रम न करने वाला बड़ा आदमी होता है। इस दृष्टिकोण ने श्रम की व्यवस्था और महत्त्व को भुला दिया। हम इस सच्चाई को भुला रहे हैं। दुनिया में जितने भी महान आदमी हुए हैं, वे प्रायः श्रमिक हुए हैं। आचार्यश्री तुलसी निरंतर १५-१६ घंटे श्रम करते थे। जो श्रमिक नहीं है, वह सच्चा शासक भी नहीं हो सकता। कहा गया है-पृथ्वी रूपी गाय का लाभ तीन व्यक्ति उठा पाते हैं। उनमें एक है श्रमिक । श्रमिक का अर्थ यह नहीं है कि वह फावड़ा ही चलाए। यह श्रम का विभाजन है। कुछ लोग मानते हैं, जो उत्पादक श्रम नहीं करता, उसका श्रम नहीं माना जा सकता। यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। व्यावहारिक दृष्टि से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org