Book Title: Jo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 133
________________ अपना आलंबन स्वयं बनें १२१ का लक्ष्य भी यही है। साधु और श्रावक दोनों का लक्ष्य एक ही है और वह है आत्मोदय । जब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होता, विषाद की स्थितियाँ आती रहती हैं। पड़ाव नहीं है लक्ष्य हम इस विषय को गंभीरता से लें। साधु बनना, मुमुक्षु बनना या श्रावक बनना, ये लक्ष्य नहीं है। ये सब पड़ाव हैं, विराम हैं। लक्ष्य है आत्मा की उपलब्धि । एक मुनि भी इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, एक श्रावक भी इसे सरलता से प्राप्त कर सकता है। एक व्यक्ति साधु बनता है, एकलविहारी बनता है, जिनकल्पी बनता है। ये सारे पड़ाव हैं, जो मंजिल की ओर ले जाते हैं। हम इन पड़ावों को पूरा करते-करते आगे बढ़ते हैं और बढ़ते ही चले जाते हैं, तब मंजिल मिलती है। महान लक्ष्य है वीतरागता। एक जैन श्रावक प्रतिदिन बोलता है-'णमो अरहताणं।' इसका अर्थ है अर्हत्, वीतराग या केवली होना हमारा लक्ष्य है। महावीर ने कहा, 'जिसके सामने यह प्रज्ञा होती है, वह अनात्मप्रज्ञ हो जाता है जो आत्मा की प्रज्ञा को भुला देता है वह विषाद को प्राप्त होता है।' हम इसे दूसरे संदर्भ में देखें। एक व्यक्ति बड़े लक्ष्य के साथ चला। कुछ आवरण हटा, आत्मा की कोई झलक मिल गई। वह आगे चल पड़ा, किन्तु कोई ऐसी काई छा गई, मोह या मूर्छा की गहरी काई सामने आ गई। उसे तोड़ना या भेद पाना बहुत कठिन है। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक व्यक्ति सोचता है , 'मैं साधु बनूँ, मोह-माया को छोड़ दूँ।' उसके मन में यह विचार आता है और वह इस दिशा में चल पड़ता है, किन्तु जब मोह की सघन परत आड़े आती है, तब व्यक्ति लक्ष्य से भटक जाता है। वह उस सघन परत के नीचे दबता चला जाता है। यह स्थिति इसलिए बनती है, क्योंकि उसका पुरुषार्थ मंद हो जाता है। पुरुषार्थ एवं क्षयोपशम हमारे क्षयोपशम की स्थिति पुरुषार्थ सापेक्ष है। निरंतर पराक्रम, पुरुषार्थ और वीर्य का प्रयोग चलता रहे, हाथ निरंतर कर्मशील रहें तो आदमी तैरता चला जाता है। जब तक हाथ हिलते रहेंगे। क्षयोपशम काम देगा। हाथ हिलने बंद हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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