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प्रकृति एवं विकृति सकता । उपयोगिता और अपेक्षा जुड़ी हुई हैं । स्वावलंबन की चर्चा मैंने की थी। वैयक्तिकता का एक लक्षण है स्वावलंबन, किन्तु सही अर्थ में, थोड़े गहरे में उतरकर देखा जाए तो स्वावलंबी शब्द भी सापेक्ष ही है। एक अपेक्षा से ही आदमी स्वावलंबी होता है। पूरी अपेक्षा की जहाँ बात है, वहाँ कोई आदमी स्वावलंबी नहीं हो सकता। वहाँ सूत्र बनता है-परस्परावलंबन । इसका अर्थ है, 'एक-दूसरे को एक-दूसरे का आलंबन । एक-दूसरे का सहारा बनना।' परस्परावलंबन के आधार पर समाज का निर्माण होता है। एक आदमी खेती करता है, दूसरा व्यापार, तीसरा औजार बनाता है, चौथा खेती के साधनों का निर्माण करता है। इन सबका योग होता है और अनाज बाजार में आ जाता है। किसान खेती करने वाला है, लेकिन बिना औजार और ट्रैक्टर के कहाँ से होगी खेती? नहीं हो सकेगी। किसान को औजार चाहिए, उपकरण चाहिए। उपकरण कहाँ से आएगा? एक कारीगर हल भी बना लेता है, ट्रैक्टर भी बना लेता है। यदि लोहा नहीं है, काठ नहीं है, तो कहाँ से होगा निर्माण ! इसके लिए खदान, मजदूर, लोहा और अनेक उपकरणों की आवश्यकता होती है। इतना सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है। परस्परावलंबन में इन सबका योग है । सब जुड़े हुए हैं। एक व्यक्ति अलग-सा लगता है। चलता है तो ऐसा लगता है कि वह अकेला नहीं चल रहा, उसके साथ सैकड़ों लोग चल रहे हैं। अकेला कहाँ चल रहा है? पत्नी रोटी न परोसे, तो पति को पता चले कि कैसे चला जाता है। हाथ-पैर ठंडे पड़ जाते हैं। घुटने टिक जाते हैं । चक्कर आने लगते हैं। चलने की शक्ति नष्ट हो जाती है। एक आदमी चल रहा है, तो उसके साथ-साथ रोटी भी चल रही है। रोटी चल रही है, तो साथ-साथ व्यापार भी चल रहा है। किसान भी चल रहा है। केवल अकेला चलेगा तो वह चल नहीं सकेगा, स्थिर हो जाएगा। वह गतिमान नहीं हो सकता। हमारी गति के साथ न जाने कितने लोगों का योग है, कितने जुड़े हुए हैं । हम जब योग की बात को भुला देते हैं, इस जुड़ाव को भूल जाते हैं, तब अकेलेपन की बात सोचते हैं, व्यक्तिगत बात सोचते हैं। जैसे ही हम दूसरे कोण की ओर मुड़ते हैं और ध्यान देते हैं कि योग के बिना, इस जुड़ाव के बिना कोई भी आदमी कुछ भी नहीं कर सकता, तब समाज की प्रतिमा हमारे सामने उपस्थित हो जाती है। एक प्रयत्न के साथ सैकड़ों प्रयत्न स्पष्ट उभर आते हैं। सबका योग मिलता है, तब पूरा काम बनता है।
यह योग या संबंध इतना सूक्ष्म है कि पता ही नहीं चलता। स्थूल दर्शन
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