Book Title: Jo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 181
________________ दिशा और दशा जीवन की दो धाराएँ अहिंसा और हिंसा, ये दो विरोधी प्रवाह हैं । इनकी धाराएँ कभी मिलती नहीं । एक जीवन में दो धाराएँ हो सकती हैं। एक वृत्ति में दोनों नहीं हो सकतीं । अहिंसा आत्मा की स्वाभाविकता और जीवन की उपयोगिता है । हिंसा जीवन की अशक्यता और आत्मशक्ति के अल्प विकास की दशा में पनपने वाली बुराई है। आत्मा, शरीर, वाणी और मन की सहयोगी स्थिति का नाम जीवन है । इस सहयोगी स्थिति का अधिकारी जो होता है, वह व्यक्ति कहलाता है । जीवन स्व (आत्मा) और पर (शरीर, वाणी, और मन ) का संगम है । व्यक्ति भी स्व-पर का संगम है। वह स्व-पर के संगम से बनी हुई संस्था है। जीवन का स्व-अंश स्वभाव और पर- अंश विभाव है। वास्तव में स्वाभिमुखता या पदार्थभिमुखता विभाव, विकार या हिंसा है । १६९ स्वभाव का विकास शुरू होते ही विभाव एकदम चला नहीं जाता । स्वभाव की मात्रा कम होती है, विभाव सताता है, अशांति और उद्वेग लाता है । स्वभाव की मात्रा बढ़ती है, मन, वाणी, शरीर और पदार्थ के प्रति नियंत्रण - शक्ति बढ़ती है, तब विभाव उतना नहीं सताता । फिर जीवन की दिशा और गति स्वयं स्वभावोन्मुख हो जाती है। अहिंसा विशाल होती है। हिंसा सीमा से परे नहीं हो सकती । एक व्यक्ति क्रूर है, लेकिन उसकी हिंसा की भी एक निश्चित रेखा होती है। वह अपने राष्ट्र, समाज, जाति या कम से कम परिवार का शत्रु नहीं होता। वह हर क्षण क्रियात्मक हिंसा नहीं करता । व्यक्ति क्रोध करता है, पर क्रोध ही करता रहे, ऐसा नहीं होता । मान, माया और लोभ की परम्परा भी निरंतर नहीं बढ़ती । क्रोध की मात्रा बढ़ती है, व्यक्ति में पागलपन छा जाता है। मान, माया और लोभ की बढ़ी हुई मात्रा भी शांति नहीं देती। हिंसा को सीमित किए बिना व्यक्ति जी नहीं सकता । अहिंसा विशाल है, अनंत है, बंधन से परे है। कोई समूचे जगत के प्रति अहिंसक रहे तो रहा जा सकता है। अहिंसा की मात्रा बढ़ती है, प्रेम का धरातल ऊँचा और निर्विकार होता है, उससे आनंद का स्रोत फूट निकलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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