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प्रकृति एवं विकृति
१४५ ___ हमारी बाहर की खोज बहुत चलती है। वह इसलिए चलती है कि हम पर से बहुत परिचित हो गये। हम स्व और पर, दोनों शब्दों को जानते हैं, किन्तु हम ज्यादा पर से ही परिचित हैं। हमारे सामने ज्यादा पर ही आता है, इसलिए हम स्व की बात समझ नहीं पाते। हमारी साधना के विषय में भी ऐसा ही है। लगता है कि हम स्व की दिशा में चल रहे हैं, परन्तु वास्तविकता में हम पर की ओर चले जाते हैं। सार्थक सहवास
भगवान बुद्ध ने कुछ स्थविरों को निर्देश दिया, 'अमुक गाँव में चतुर्मास करके आओ।' तीस-चालीस भिक्षु भी थे। उन्होंने वर्गानुसार संयोजक बना लिए। सबको अपना काम समझा दिया गया। व्यवस्था हो गई। फिर सोचा कि कोई कलह नहीं हो, उसके लिए और क्या-क्या करना चाहिए? एक सुझाव आया कि हमें मौन करना चाहिए। एक भिक्षु ने तर्क प्रस्तुत दिया, 'मौन करने से क्या होगा? वह तो एक या दो घंटा किया जाएगा। बाईस घंटे शेष रह जाते हैं। लड़ाई होनी है तो हो ही जाएगी।' तीसरे भिक्षु ने सुझाव दिया, 'हम सब भिक्षु चार महीनों का मौन करें लें।' यह सुझाव सबको अच्छा लगा। सब भिक्षुओं ने मान्य कर लिया। चतुर्मास पूरा हो गया। भिक्षुओं ने सोचा, 'हम बुद्ध के पास जाएँगे, हमें प्रशंसा अवश्य मिलेगी।' भिक्षु बुद्ध के पास आए। भगवान बुद्ध ने कुशलक्षेम पूछी। भिक्षुओं ने पहले सारी व्यवस्थाओं के बारे में बताया। उन्होंने कहा, 'हम सब चार महीने बिल्कुल मौन रहे, बड़ा शांत सहवास बीता।' बुद्ध बोले, 'भिक्षुओं, यह क्या किया? इससे तो अच्छा रहता कि पशुओं का टोला लाकर खड़ा कर लेते। तुम्हारे खर्च का बोझा तो नहीं बढ़ता। तुम वहाँ परस्पर बातचीत करते, लोगों को धार्मिक कथाएँ सुनाते, ज्ञान देते, फिर शांत सहवास बिताकर आते, तब कुछ श्रेयस्कर काय होता, तभी सहवास की सार्थकता होती। यह तो ठीक वैसा हुआ, जैसे पशुओं का टोला काम करता है।
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