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प्रकृति एवं विकृति
१५३ अध्यात्म और विज्ञान दोनों एक ही सत्य के दो पक्ष हैं। वैज्ञानिक शोध का उद्देश्य मानवीय समस्याओं को सुलझाना था, किन्तु आज उसका व्यवसायीकरण हो गया, इसलिए वह भय, आतंक और हिंसा का प्रतीक बनता जा रहा है। आध्यात्मिक चेतना को जागृत कर इस व्यावसायिक वृत्ति को कम किया जा सके, तो जीवनशैली को बदलने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज या कल, हमें एक दिन अवश्य ही इस विषय पर गंभीर चिंतन करना होगा। असंयम, विषमता और आसक्ति प्रधान जीवनशैली के स्थान पर संयम, समता और अनासक्ति की जीवनशैली को प्रतिष्ठित कर हम धन्यता का अनुभव करेंगे। अध्यात्म से आरोग्य
तन और मन दोनों स्वस्थ रहें, यह हर व्यक्ति की स्वाभाविक आकांक्षा है। शरीर स्वस्थ हो और मन स्वस्थ न हो तो पागलखाने जाना होगा। मन स्वस्थ हो, शरीर स्वस्थ न हो तो अस्पताल, दवाखाने की शरण लेनी पड़ेगी। दोनों घर से दूर ले जाते हैं। शरीर से भी ज्यादा सताने वाली या कष्टदायी हैं मन की बीमारियाँ। मन बहुत सताता है। रोग के दो अधिष्ठान माने गए हैं-शरीर और मन। इसी आधार पर बीमारी के भी दो भेद कर दिए गए-शारीरिक रोग और मानसिक रोग। धर्म या अध्यात्म के साथ मानसिक रोगों का संबंध ज्यादा है। एक सिद्धान्त है कि वीतराग को मन का रोग नहीं होता। मन का रोग नहीं होता, इसलिए शरीर का रोग भी नहीं होता। मन शरीर पर बहुत प्रभाव डालता है। मन रोग की जैसी स्थिति पैदा कर देता है या जैसे खतरनाक हालात बना देता है, रोग वैसा होता नहीं है। शरीर का रोग सबसे पहले प्रभाव डालता है शरीर पर और फिर प्रभाव डालता है मन पर। मन की बारी बाद में आती है। मन का रोग पहले प्रभाव डालता है मन पर और उसके बाद प्रभाव डालता है शरीर पर। दोनों के ही अपने-अपने कार्यक्षेत्र और प्रभावक्षेत्र हैं। शरीर का रोग शरीर पर और मन का रोग मन पर। लम्बे समय के बाद या उत्तर काल में शरीर और मन दोनों परस्पर प्रभावित होते हैं। वीतरागता की दिशा
धर्म या अध्यात्म का सिद्धान्त है वीतरागता। शायद हमारी दुनिया में वीतराग से ज्यादा कोई सार्थक शब्द नहीं है । जीवन के विकास का इससे बड़ा कोई शब्द नहीं है। वीतराग बन गया, इसका अर्थ है कि व्यक्ति शिखर पर
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