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अपना आलंबन स्वयं बनें
११९ यह आवेशपूर्ण चिंतन का परिणाम है। पहले उसे जानना चाहिए था कि अमुक आदमी ने गालियाँ दी हैं या नहीं। एक बात हुई, आवेश आया और आवेश ही चिंतन बन गया। यह भयंकर अवस्था है। क्रोध का आवेश और अहंकार का आवेश कितना भयंकर होता है, यह अज्ञात नहीं है। नौकर बात नहीं मानता, तत्काल अहंकार का आवेश आ जाता है। उसे आवेश में क्याक्या नहीं कह दिया जाता? गालियाँ दी जाती हैं, नौकर को पीटा जाता है, उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। यह सब अहंकार के आवेश के कारण होता है। क्या यह जरूरी है कि हर आदमी हर आदमी का आदेश माने? कोई जरूरी नहीं है। मानना अच्छा होता है, पर कभी-कभी न मानना उससे भी ज्यादा अच्छा होता है।
मालिक ने नौकर से कहा, 'जाओ, बगीचे में पानी सींच आओ।' नौकर बोला, 'मालिक! बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही है। पानी सींचने से क्या होगा?' मालिक बोला, 'तुम मूर्ख हो। वर्षा हो रही है तो छाता ले जाओ और पानी सींच आओ।' नौकर अब क्या करे? कहने वाला मालिक इतना भी नहीं सोचता कि मूसलाधार वर्षा हो रही है तो पौधों को पानी देने का अर्थ ही क्या हो सकता है? नौकर इस आदेश को माने तो क्यों?
आदेश देने वाले सभी बहुत समझदार होते हैं और बहुत विवेकपूर्ण आदेश देते हैं, ऐसा आवश्यक नहीं है। अनेक बार ऐसे आदेश दिए जाते हैं कि उन्हें मानने पर बड़ा अनर्थ हो सकता है और न मानने पर मालिक का क्रोध और आवेश तैयार रहता है। उसके परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं। आवेश के कारण चिंतन की दिशा विकृत हो जाती है। आदमी किसी को समझ नहीं पाता। पत्नी-पति, भाई-भाई, नौकर-स्वामी के संबंधों में जो दूरी आती है, उसमें आवेश का मुख्य हाथ रहता है। जब आवेश की दीवार बीच में होती है, तब आदमी किसी दूसरे को समझ नहीं पाता, देख नहीं पाता। उसे आवेश ही दिखेगा और सामने वाला व्यक्ति वैसा ही दिखेगा जैसा प्रतिबिंब आवेश के साथ जुड़ चुका है। इसलिए संतुलित चिंतन का मानदंड है-अनावेश अवस्था का अभ्यास । यह कैसे हो सकता है? क्या क्रोध और अहंकार को कम किया
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