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जो सहता है, वही रहता है अमन की अवस्था
जैन की परिभाषा में मन का अर्थ है मनोवर्गणा । जीव के द्वारा मनोवर्गणा के आधार पर जब मनन किया जाता है, तब मन का निर्माण होता है। मन कोई स्थायी तत्त्व नहीं है। आत्मा स्थायी तत्त्व है। मन उत्पन्न होता है और फिर नष्ट हो जाता है। हम इस स्थिति में चले जाएँ, मन को समाप्त कर दें, मन को उत्पन्न न होने दें। यह हमारी अमन की अवस्था है। अमन की अवस्था अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रकट होने की अवस्था है। बौद्ध दर्शन में यह संभव नहीं है। वहाँ सारी धारणा ही मन के साथ जुड़ी हुई है। आत्मा नाम का कोई तत्त्व नहीं है।
अमन होगा, मन को समाप्त कर देना, यह स्वसंवेदन की, आत्म साक्षात्कार की भूमिका है। इस भूमिका में पहुँचकर व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि आत्म-साक्षात्कार हो रहा है। जब इंद्रिय का ज्ञान नहीं है, मन का ज्ञान नहीं है, उस स्थिति में केवल दो ही बातें हो सकती हैं। ज्ञान समाप्त हो गया अथवा मन चेतन से अचेतन बन गया। इंद्रिय और मन के अभाव में भी अनुभव होता है और वह अनुभव स्वसंवेदन के क्षण में पैदा होता है। अस्तित्व का अनुभव
एक व्यक्ति ने पूछा, 'क्या बुद्धि और अनुभव एक हैं?' मैंने कहा, 'दोनों अलग-अलग हैं। बुद्धि अलग है, अनुभव अलग है।' बुद्धि का काम है निर्णय करना, विवेक करना । वह हमारी निर्णयात्मक चेतना है। एक है संवेदनात्मक चेतना, जहाँ न कोई निर्णय होता है, न कोई विवेक होता है। वहाँ केवल अपने अस्तित्व का अनुभव होता है, 'मैं हूँ' और 'मैं ज्ञानमय हूँ' इस अवस्था का अनुभव होता है। यह स्वसंवेदन आत्म-साक्षात्कार है, जहाँ मूर्त को जानने वाले ज्ञान से छुटकारा पा लिया, वहाँ अमूर्त भीतर से झलकने लग जाता है, उसका भान होने लग जाता है। यह स्पष्ट बोध होने लग जाता है कि मैं स्वयं को जान रहा हूँ, किसी दूसरे को नहीं जान रहा हूँ। केवल अपना ही ज्ञान भीतर सक्रिय हो रहा है। यह एक विचित्र अनुभव का क्षण है।
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