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जो सहता है, वही रहता है
जाए। उसके मन में प्रयोग करने की भावना जागी । किस पर उसका प्रयोग करे ? उसने अपने पति पर ही उस दवा का प्रयोग कर दिया। पति बैल बन गया। संयोग ऐसा मिला कि पुनः मनुष्य बनाने की औषधि गुम हो गई। अब क्या करे ? उसे इतना ज्ञात था कि अमुक जड़ी के पास ही वह औषधि है, जिसे खिलाने पर पुनः मनुष्य बनाया जा सकता है। यह पता कैसे चले कि अमुक औषधि वही है ? कुछ क्षण विचार करने के बाद उसने निश्चय किया कि प्रत्येक औषधि का परीक्षण करना होगा । उसने एक-एक जड़ी को काट-काटकर खिलाना शुरू किया। काटते-काटते वह जड़ी भी आ गई । उसे खाते ही बैल पुनः पुरुष बन गया ।
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महिला ने पूरा श्रम किया, उसे पति उपलब्ध हो गया । यदि वह इतना श्रम नहीं करती तो उसका पति बैल ही बना रह जाता ।'
आचार्य हेमचन्द्र ने कहा, 'इसी प्रकार अनेक धर्मों का परीक्षण करतेकरते तुम्हें वह धर्म मिल जाएगा, जो सबसे अच्छा है ।'
श्रमनिष्ठा का सिद्धान्त
मनुष्य ने जिन सच्चाइयों का पता लगाया है, जितने रहस्यों का अनावरण हुआ है, वह मानवीय श्रम और पुरुषार्थ के द्वारा ही हुआ है। आराम और निराशा से किसी भी सच्चाई को अनावृत नहीं किया जा सकता । जरूरी है श्रमनिष्ठा और श्रम का अनुशीलन । मनुष्य श्रम कम करना चाहता है, आराम ज्यादा चाहता है । श्रमनिष्ठा का सिद्धान्त जीवनशैली का मुख्य अंग होना चाहिए। जिसने पुरुषार्थवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, जो नियतिवाद को एकान्ततः स्वीकार करता है। उसकी जीवनशैली स्वावलंबन और श्रमप्रधान होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति के दिमाग में श्रम और स्वावलंबन की छवि अंकित होनी चाहिए। जिसे अपने कर्तृत्व और पुरुषार्थ पर विश्वास है, वह श्रम और स्वावलंबन की उपेक्षा नहीं कर सकता। जिसका दिमाग श्रमनिष्ठा का नहीं होता है, वह परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए बहुत कल्याणकारी नहीं होता ।
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