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समता की दृष्टि
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होती, तो तुम सोचो कि मुझे कह ही नहीं रहा है, किसी पड़ोसी से कह रहा है। इसमें मेरे लिए कुछ है ही नहीं । मेरा इस बात से कोई संबंध ही नहीं है । तुम अपने आपको बचा लो। यह एक बहुत पुष्ट आलंबन है, इसके प्रयोग व अभ्यास से उत्तेजना और आवेश के प्रसंग में खुद को संतुलित रख सकते हैं ।
दूसरा प्रसंग है, यदि कोई आदमी किसी की निंदा करता है, तो यह स्वाभाविक है कि मन नाराज हो जाता है। प्रशंसा होती है, तो मन राजी होता है । यह एक प्रतिक्रिया है । ऐसा स्वभाव बन गया है कि कहीं भी प्रशंसा की बात आती है, मन प्रसन्न हो जाता है । थोड़ी-सी निंदा हुई, मन उदास हो जाता है । यह तो स्वाभाविक बात हो गई । अब इस स्थिति से कैसे बचा जा सकता है ? इस प्रतिक्रिया से बचने का सुंदर आलंबन है
'नन्नस्स वयमा चोरा, नन्नस्स वयमा मुणी । अप्पा अप्पं वियाणाति ।'
'किसी के कहने से कोई चोर नहीं बनता और किसी के कहने से कोई साधु नहीं बनता। आत्मा स्वयं को जानती है कि मैं चोर हूँ या साहूकार हूँ ।' यह एक पुष्ट आलंबन है । यदि इसे पूरी तरह से जीवन में उतार लिया जाए कि दूसरे के कहने से कोई चोर या साहूकार नहीं होता, कोई अच्छा या बुरा नहीं होता, तो प्रतिक्रिया से मुक्त हुआ जा सकता है । अपना आत्मविश्वास प्रबल हो। अपने प्रति अपना विश्वास, अपनी क्षमता के प्रति अपना विश्वास, अपने पुरुषार्थ के प्रति अपना विश्वास हो, तो दूसरे के कहने से कुछ भी नहीं होता । शायद कुछ लोग चाहते भी नहीं कि कोई नया आदमी प्रगति करे। यह एक स्वभाव है कि मौजूदा पीढ़ी भावी पीढ़ी को स्वीकार नहीं करती। वे यही कहेंगे कि आज सब खराब हैं । यह आज की बात नहीं है, यह शाश्वत सत्य है । पहली पीढ़ी ने अगली पीढ़ी को हमेशा कमजोर बतलाया है ।
नूतन व पुरातन का टकराव
पुरानी और नई पीढ़ी का संघर्ष बहुत पुराना है। पुराने व्यक्ति और पुरानी कृति को मान्यता प्राप्त होती है। नए व्यक्ति और नई कृति को मान्यता प्राप्त करनी होती है ।
मनुष्य तत्काल किसी को मान्यता प्रदान करने में असहज महसूस करता
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