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व्यक्तित्व के विविध रूप
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स्यात् शब्द का सहारा । स्यात् शब्द अपेक्षा की ओर इंगित करता है। वह कहता है कि जो कुछ कहा गया है, कहा जा रहा है उसे अपेक्षा से समझो। अपेक्षा से समझे बिना अर्थ का अनर्थ हो सकता है। आग्रह मत करो। कथन के संदर्भ को समझो। शब्द की पकड़ खतरा पैदा कर देती है। वह सत्य से दूर ले जाती है । मैं बहुत बार सोचता हूँ कि कहीं साधक मेरे शब्द को ही न पकड़ लें। मैं बार-बार कहता हूँ कि श्वास को देखना आत्मा को देखना है। कोई इस वाक्यांश के संदर्भ को समझें बिना पकड़ न ले। अन्यथा बड़ा अनर्थ घटित हो सकता है। दस प्राणों में एक प्राण श्वास है। प्राण आत्मा क्यों नहीं है? जो प्राण है, वह आत्मा है, आत्मा से जुड़ा हुआ है। यदि अपेक्षा को न समझा जाए तो बहुत अनर्थ हो जाता है। या तो हम इस बात को अस्वीकार कर दें कि श्वास को देखना आत्मा को देखना नहीं है या फिर श्वास को देखना छोड़ दें। श्वास को नहीं देखने का अर्थ है साधना के प्रथम द्वार में प्रवेश किए बिना ही घर लौट आना। आगे के द्वार बंद ही पड़े रह जाते हैं। आगे का विकास असंभव हो जाता है और यदि हम श्वास को ही पूर्ण आत्मा मानकर अटक जाते हैं, तो आगे एक कदम भी नहीं रख पाते। वहीं गतिरोध हो जाता है। प्रवृत्ति और परिणाम
हमारा जीवन अस्तित्व और आकांक्षा, दोनों के बीच में चल रहा है। हम हैं, हमारा अस्तित्व है। हम होना चाहते हैं, यह होने की आकांक्षा है। आदमी में बदलने की, कुछ होने की, एक आकांक्षा होती है, चाह होती है। कोई भी आदमी जिस स्थिति में है, उसमें शायद संतुष्ट नहीं होता, कुछ और होना चाहता है। जहाँ है, वहाँ से कुछ और आगे जाना चाहता है। जिस बिंदु पर है, वहाँ टिका रहे, ऐसा शायद ही कोई आदमी है। कुछ होने की चाह से अनेक संभावनाएँ जन्म लेती हैं। होना है तो आयाम खोजने होंगे। उपाय खोजने होंगे, एक वातावरण की सृष्टि करनी होगी। आदमी सत्य को प्राप्त करना चाहता है, सफल होना चाहता है, स्वस्थ होना चाहता है, विकास करना चाहता है।
मनुष्य की एक मनोवृत्ति है, जो अत्यंत भयंकर है। इस मनोवृत्ति ने
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