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व्यक्तित्व के विविध रूप
१०१ तो वह मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की सूची है। मोहनीय कर्म की जो प्रकृतियाँ हैं, वे मन को विकृत करने वाली होती हैं। आठ प्रकार के कर्म होते हैं। जयाचार्य ने इनका वर्गीकरण कर तीन भागों में बाँट दिया-आवारक, अवरोधक और विकारक । कुछ कर्म आवरण पैदा करने वाले हैं। वे कोई नुकसान नहीं करते, वे केवल पर्दा डाल देते हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण, ये दो कर्म आवारक हैं। कुछ कर्म अवरोधक है। अवरोध पैदा करने वाले हैं। अन्तराय कर्म प्रतिघात करता है, शक्ति का स्खलन करता है। मोहनीय कर्म विकारक है, विकार पैदा कर देता है। जितनी भी विकृति है, आचरण या चरित्र की विकृति है, उसका घटक है मोहनीय कर्म। सीधी भाषा में कहें तो जितना भी बिगाड़ होता है, वह मोहनीय कर्म करता है। दर्शनमोह दृष्टिकोण में विकार लाता है, चरित्रमोह चरित्र में विकार पैदा करता है। विकार करनेवाला कर्म है मोहनीय कर्म। अध्यात्म एवं आयुर्वेद
आयुर्वेद की भाषा में विकार पैदा करने वाला है-मानस दोष । काम, क्रोध, लोभ, भय, ईर्ष्या, मात्सर्य, मोह आदि मानस दोष सूची के मुख्य सूत्र हैं। ये आयुर्वेद के सूत्र हैं या अध्यात्म के सूत्र हैं? एक धार्मिक आदमी समझेगा कि धर्म की बात कही जा रही है, किन्तु आयुर्वेद स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपना मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षित रखना चाहता है, चाहे वह धर्म को माने या न माने, धर्म में आस्था रखे या न रखे। जो अपना मानसिक स्वास्थ्य ठीक रखना चाहता है, उसे इन मानस दोषों से बचना चाहिए। जो इनसे नहीं बचेगा, उसका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं रह पाएगा।
कभी-कभी दो दिशाएँ एक साथ मिल जाती हैं। एक आध्यात्मिक व्यक्ति कहेगा यदि तुम्हें पाप और अधर्म से बचना है, तो क्रोध, लोभ, भय, ईर्ष्या इन सबसे बचना होगा। यह अध्यात्म की वाणी होगी। स्वास्थ्यशास्त्र को जानने वाला व्यक्ति कहेगा यदि तुम शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रहना चाहते हो तो मानस दोषों-काम, क्रोध, लोभ, भय, ईर्ष्या आदि से बचो। यह आयुर्वेद की वाणी है।
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