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समता की दृष्टि
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उलटने वाली हैं। शरीर की रचना, प्रकृति की रचना, परमाणु की रचना या विद्युत की रचना, सब में विरोधी तत्त्व काम कर रहे हैं। विद्युत में धन और ऋण दोनों काम करते हैं। दोनों साथ-साथ क्रिया करते हैं। केवल धन या केवल ऋण से विद्युत कार्यकारी नहीं होती। दोनों का ही होना अनिवार्य है ।
प्रतिपक्ष की आवश्यकता
हमारी समूची व्यवस्था का आधार हैं- विरोधी युगल । पक्ष और प्रतिपक्ष, दोनों आवश्यक हैं। केवल पक्ष भी निकम्मा है और केवल प्रतिपक्ष भी निकम्मा है। दोनों का योग सफल होता है ।
अनेकांत के आधार पर खोजा गया है कि लोक हैं और अलोक भी हैं । बड़ी विचित्र व्यवस्था है। लोक या संसार की कल्पना अन्यान्य दर्शनों में मिलती है, किन्तु अलोक की कल्पना अनेकांत की सीमा से परे नहीं मिलती । आज के विज्ञान ने अवश्य ही इस कल्पना को एक रूप दिया है। प्राचीन दर्शनों में लोगों की विभिन्न कल्पनाएँ प्राप्त हैं, किन्तु अलोक की चर्चा किसी दर्शन में नहीं है
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आज का विज्ञान कहता है कि यूनिवर्स है तो एंटी यूनिवर्स भी है, कण है तो प्रतिकण भी है। अणु है तो प्रतिअणु भी है । पदार्थ है तो प्रतिपदार्थ भी है। यदि प्रतिअणु न हो तो अणु का और प्रतिजगत न हो तो जगत का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता ।
जब जैन धर्म ने लोक और अलोक की व्यवस्था दी, तब यह प्रश्न उठा कि लोक की चर्चा समझ में आ सकती है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष है । अलोक प्रत्यक्ष नहीं है, उसे कैसे स्वीकारा जाए ? बहुत जटिल प्रश्न है। इस प्रश्न को समाहित करने के लिए अनेकांत की दृष्टि का उपयोग करना पड़ा। अनेकांत ने कहा- दो तत्त्व हैं, गति और स्थिति । दोनों साथ होती हैं । जहाँ गति और स्थिति, दोनों नियम काम करते हैं, वह है लोक । जहाँ गति और स्थिति का नियम लागू नहीं होता, वह है अलोक । जहाँ चेतन और अचेतन का जोड़ा नहीं होता, जहाँ केवल अचेतन होता है, केवल आकाश होता है, आकाश के साथ कोई पदार्थ नहीं होता, वह है अलोक ।
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