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जो सहता है, वही रहता है से मुक्त हम कैसे हो सकेंगे? केवल साधु-संन्यासी के जीवन की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं सामाजिक जीवन के संदर्भ में कुछ चर्चा कर रहा हूँ। सामाजिक जीवन में भी एक सीमा तक अहंकार को कम करना जरूरी होता है। जो संन्यासी बन गया, उसके लिए तो अहंकार को कम करना बहुत जरूरी है, किन्तु जो संन्यासी नहीं बना और सामाजिक जीवन जी रहा है, उसके लिए भी आवश्यक है कि अहंकार को कम करता चले। प्रतिक्रिया के हेतु
महारानी विक्टोरिया आई। दरवाजा खटखटाया। भीतर बैठा था प्रिंस अलबर्ट। यूछा, 'कौन है?' जवाब आया, 'महारानी विक्टोरिया।' दरवाजा नहीं खुला। फिर खटखटाया
और फिर पूछा, 'कौन है ?' उसने फिर जवाब दिया, 'आपकी प्रिय पत्नी विक्टोरिया।' तत्काल दरवाजा खुल गया। महारानी के लिए दरवाजा नहीं खुल सकता और प्रिया के लिए दरवाजा खुल सकता है।
जब अहंकार बैठा है तो सामने वाला व्यक्ति भी तन जाता है। एक का अहंकार दूसरे में भी अहंकार पैदा कर देता है। एक की विनम्रता दूसरे को भी विनम्र बना देती है। प्रतिक्रिया का बहुत बड़ा कारण बनता है, 'अहंकार' । एक पक्ष का अहंकार भी प्रतिक्रिया का कारण बनता है और यदि अहंकार दोनों पक्षों में हो जाए तो भयानक स्थिति बन जाती है।
प्रतिक्रिया का दूसरा हेतु बनता है-गलती बताना। कोई आदमी किसी को बताए कि तुमने यह गलती की, यह तो बड़ी भयंकर बात है। न बताए तब तो ठीक है, बताने पर सौ में निन्यानवे व्यक्ति ऐसे होंगे कि एकदम आवेश में आ जाएँगे। बड़ी कठिन समस्या है दूसरे की गलती बताना । दूसरे के दोष बताने का मतलब है, शत्रुता मोल लेना। यह विचार गृहस्थों में ही नहीं, साधना करने वाले व्यक्तियों के मन में भी आता है। मैं किसी की कोई गलती पक, इसका मतलब है शत्रुता मोल ले लूँ? क्योंकि गलती बताने पर उसे स्वीकार करे और यह कहे कि तुमने बहुत अच्छा काम किया, मुझे चेताया, मुझे सावधान किया, बहुत अच्छा किया, मैं और सावधान रहूँगा। ऐसी बात
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