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जो सहता है, वही रहता है लेकिन चुलनीपिता पर इसका कोई असर नहीं हुआ। देव ने दूसरे लड़के को भी उसी विधि से उसके सामने मारा, टुकड़े-टुकड़े किए, कड़ाहे में तला और रक्त से चुलनीपिता के शरीर को सींचा।
लेकिन चुलनीपिता का एक रोम भी नहीं हिला। देव ने कनिष्ठ पुत्र की भी वही दशा की, पर चुलनीपिता अपनी साधना में लगा रहा।
तीनों पुत्रों की हत्या की गई। देव निराश हो गया। चुलनीपिता का एक रोम भी प्रकम्पित नहीं हुआ। देव ने आखिर में कहा, 'मेरी बात मानना चाहते हो, तो मान लो। अन्यथा अब मैं तुम्हारी माता भद्रा को घर से निकाल कर लाता हूँ और तुम्हारे सामने उसके टुकड़े-टुकड़े कर कड़ाही में तलता हूँ।'
चुलनीपिता ने सुना। उसने सोचा, 'यह दुष्ट कुछ भी कर सकता है। इसने मेरे तीनों पुत्रों की हत्या कर डाली। अब मेरी माता को भी यह मार डालेगा। माँ के प्रति ममता उभर आई। स्नेह उमड़ा, ध्यान का आसन डोल गया। वह साधना को छोड़ उस दुष्ट पुरुष को पकड़ने दौड़ा, लेकिन वह पुरुष तो आकाश में उड़ गया। घर के सब लोग दौड़े-दौड़े आए। न पुत्रों की हत्या हुई थी और न माँ को मारने की किसी ने तैयारी की थी। न कड़ाह था, न खून था और कुछ भी नहीं था। सारी देवमाया थी।
इस घटना की पौराणिक व्याख्या यह हो सकती है कि देव आया और उसने वैसा घटित किया। ध्यान या योग के संदर्भ में इसकी यह व्याख्या हो सकती है कि वहाँ न कोई देव था, न कुछ और था। व्यक्ति के अपने निषेधात्मक भाव जागे और उन भावों ने ऐसा मायाजाल रचा कि उस जाल में तीनों लड़के सामने मारे गए और तले गए। जब निषेधात्मक भावों का सिलसिला खत्म हुआ और जैसे ही ध्यान टूटा, सब कुछ समाप्त हो गया, कुछ भी नहीं रहा।
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