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व्यवहार के विभिन्न आधार
प्रत्येक पदार्थ अपने विरोधी पदार्थ से जुड़ा हुआ है। वैज्ञानिकों ने प्रतिकण को खोजने के लिए सूक्ष्म उपकरणों का उपयोग किया। ऐसा सूक्ष्म यंत्र बनाया गया, तब उन्हें प्रतिकण का पता चला । आज यह सिद्धान्त प्रतिष्ठित हो चुका है कि प्रतिकण के बिना कण का अस्तित्व नहीं हो सकता। दोनों का होना अनिवार्य है । अनेकांत का मूल आधार है विरोधी के अस्तित्व की स्वीकृति, प्रतिपक्ष की स्वीकृति । इस स्वीकृति से ही अनेकांत का विकास होता है । अनेकांत कहता है कि सत्य को एक दृष्टि से मत देखो। सत्य को अस्तित्व की दृष्टि से देखते हो तो साथ-साथ उसे नास्तित्व की दृष्टि से भी देखो । स्वीकृति के साथ अस्वीकृति भी चलनी चाहिए। किसी एक से काम नहीं चलता । हमारे जीवन का व्यवहार, समाज का व्यवहार इन विरोधी तत्त्वों की ईंटों से बना है । यदि ये ईंटें न हों, तब न कोई व्यवहार बनेगा और न कोई आचार । विरोधी चाह और विरोधी आकांक्षा सामने आती है। एक आदमी एक प्रकार से सोचता है, तो दूसरा आदमी दूसरी प्रकार से उससे बिल्कुल उल्टा सोचता है। एक आदमी को एक कार्य लाभप्रद प्रतीत होता है, तो दूसरे को वही कार्य पतन की ओर ले जानेवाला लगता है। एक उसे उपयोगी मानता है, दूसरा उसे सर्वथा अनुपयोगी मानकर अस्वीकार करता है । एक ही पदार्थ के विषय में अनेक विरोधी धारणाएँ होती हैं। यह स्वाभाविक है। इसमें अस्वाभाविक जैसा कुछ भी नहीं है ।
निषेधात्मक भाव से बचाव
पौराणिक कहानी है कि तपस्वी ने तप करना शुरू किया और इंद्र का आसन डोल गया। जब-जब तपस्वी तप करते हैं, तब-तब इंद्रासन डोल ही जाता है । इन्द्र अपने आसन को डोलते देख चिंतातुर हो गया। उसने सोचा, खतरा पैदा हो रहा है | मेरा सारा ऐश्वर्य समाप्त हो जाएगा। मेरे स्थान पर दूसरा आ जाएगा। वह तत्काल धरती पर आया। उसने देखा, एक तपस्वी तप तप रहा है। कारण समझ में आ गया। उसने उपाय सोचा। सोने की एक सुंदर तलवार लाकर उसने तपस्वी के पास रख दी और हाथ जोड़कर बोला, 'तपस्वी, मैं शहर
जो सहता है, वही रहता है
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