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जीवन में परिवर्तन करने वाला साधक बदलने के लिए आता है। अगर बदलने की बात न हो तो ध्यान के प्रति इतना आकर्षण नहीं होता।
आदमी में बदलने की मनोवृत्ति होती है। कोई भी एक रूप रहना नहीं चाहता है। युवक भी सदा युवक नहीं रहता, बूढ़ा होता है। जैसे यौवन का अपना स्वाद है, वैसे ही बुढ़ापे का अपना मजा है, स्वाद है। जिस व्यक्ति ने बुढ़ापे का अनुभव नहीं किया, बुढ़ापे के सुख का अनुभव नहीं किया, वह नहीं जान सकता कि बुढ़ापे में क्या स्वाद है? यौवन में जो हलचल सताती है, जो समस्याएँ परितप्त करती हैं, अपरिपक्वता के कारण जो कठिनाइयाँ आती हैं, वे सब बुढ़ापे की सीमा में प्रवेश करते ही समाप्त हो जाती हैं। वह तब जान पाता है कि बुढ़ापे का सुख क्या है? आनन्द क्या है? सुख न बचपन में है, न यौवन में है और न बुढ़ापे में है। यदि सुख कि चाबी हस्तगत हो जाए तो बचपन में बहुत सुख है, जवानी में भी बहुत सुख है और बुढ़ापे में भी बहुत सुख है। जो बुढ़ापे तक नहीं पहुँचा, वह नहीं जान पाएगा कि बुढ़ापे में क्या सुख है? बुढ़ापे तक हम भी नहीं पहुंचे हैं, परन्तु उसमें होनेवाले सुख को जानते हैं। प्रत्येक व्यक्ति हर अवस्था के अनुभव में जा सकता है, उसमें से गुजर सकता है। दुःख : यथार्थ व अयथार्थ
हम परिवर्तन के सिद्धान्त को समझ कर चलें। प्रत्येक आदमी परिवर्तन चाहता है। ध्यान की समूची प्रक्रिया बदलने की प्रक्रिया है। मैंने देखा जो आदमी दस वर्षों तक नहीं बदल पाए, वे ध्यान शिविरों में बदल गए। आदमी का स्वभाव बदलता है। आदमी की आदतें बदलती हैं। आदमी के जीवन में अनेक परेशानियाँ होती हैं। क्रोध की और अहंकार की परेशानी है, भय और माया की परेशानी है। यदि हम वस्तुस्थिति में जाएँ, सच्चाई के निकट जाएँ तो पता चलेगा कि पच्चीस प्रतिशत दुःख यथार्थ होता है और शेष पचहत्तर प्रतिशत दुःख हमारे अज्ञान, हमारी धारणाओं, मान्यताओं और कल्पनाओं के कारण होता है। उसे हम भोगते हैं। यदि हम सत्य के निकट जाएँ या सत्य की सीमा में प्रवेश करें, तो पचहत्तर प्रतिशत दुःख अपने आप समाप्त हो जाता है। एक क्रोधी आदमी स्वयं दुःख पाता है। वह स्वयं ही दुःखी नहीं होता, सारे परिवार को भी दुःखी बना देता है। .
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