Book Title: Jan Jan ke Bich Acharya Shri Tulsi Part 02
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta
Publisher: Meghraj Sanchiyalal Nahta

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Page 10
________________ आचार्य श्री-बहन | हम इसका क्या करेंगे ? वहन-बाबा । मेरे पास इनसे अधिक देने के लिए कुछ भी नहीं है । मैंने बडे परिश्रम से इनको जोड रखा था। आज आप आ गए हैं तो मैंने सोचा इससे बढकर इनका और क्या सदुपयोग होगा? आचार्य श्री-ह" वो पैसो की भेंट नही लेते, भोजन की ही भेंट लेते है। बहन-तो चलिए मेरे घर से थोडे चावल ले लीजिए। आचार्य श्री-अभी तो हमे बहुत आगे चलना है और दूसरी वात यह है कि हम हमारे लिए बनाई हुई कोई चीज नही लेते है । तुम लोग देरी से भोजन करते हो अभी तुम्हारे घर पर कुछ बना भी नही होगा । प्रत अभी तो हम यहाँ नही ठहर सकते। आचार्यश्री ने उसे सतुष्ट करने का प्रयत्न किया पर मैं नहीं जानता कि वह सतुष्ट हुई या नहीं। भारत के भक्तिभृत मानस के ये कुछ ऐसे अमूल्य उदाहरण हैं जो प्राय सभी जगह देखे जा सकते है । एक अपरिचित सत के प्रति इतना प्रेम भारतीय मानस की धर्म-प्रारणता का स्वतः प्रमाण निदर्शन है। पद-यात्रा का भी आनन्द है । ईक्षु और सरसो से हरे-भरे खेतो का दृश्य कितना सुहावना होता है ? वायुयान, मोटर और रेल से यात्रा करने वाले केवल उसकी एक झाँकी ही पा सकते हैं। पर पद-यात्री के लिए वह आनन्द पग-पग पर बिखरा पड़ा है। स्थान-स्थान पर लोग कोल्हू से ईक्षु रस निकाल कर गुड बना रहे थे । उसकी मीठी-मीठी सुगन्ध दूर से ही पथिक को आमत्रण दे रही थी। हम भी जब कभी उनसे ईक्षु रस मागते तो वे हमे खूब पेट भर कर देते। शहरो मे अगर किसी अपरिचित व्यक्ति से कुछ याचना कर ली जाए तो

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