Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ तोहि उपगारो । मेरे औगुनपै मांत जावो, अपनी सुजस विचारो॥ किं०॥१॥ अव ज्ञानी दीसत हैं तिनमैं, पक्षपात उरझारो । नाहीं मिलत महाव्रतधारी, कैसे है निरवारो ॥ किं० ॥२॥ छवी रावरी नैननि निरखी, आगम सुन्यौ तिहारो । जात नहीं भ्रम क्यौं अव मेरो, या दूषनको टारो ॥ किं० ॥३॥ कोटि वातकी वात कहत हूं, यो ही मतलव म्हारो। जौलौं भव तोलौं वुध। जनको, दीज्ये सरन सहारो॥ किं०॥४॥ राग-षट्ताल तितालो। पतितउधारक पतित रटत है, सुनिये अरज हमारी हो। पतित० ॥ टेक ॥ तुमसो देव न आन जगतमैं, जासौं करिये पुकारी हो ।।१०॥१॥ साथ अविद्या लगि अनादिकी, रागदोप विस्तारी हो । याहीतै सन्तति करमनिकी, जनममरनदुखकारी हो ॥१०॥२॥ मिलै जगत जन जो भरमावै, कहै हेत संसारी हो। तुम विनकारन शिवमगदायक, निजसुभावदातारी हो ॥ पतित० ॥ ३ ॥ तुम जाने विन काल अनन्ता, गति गतिके भव धारी हो। , अव सनमुख वुधजन जांचत है, भवदधि पार उतारी हो। पतित०॥४॥ राग-षट्ताल तिताला। और और क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमैं जाननहारा

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115