Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 97
________________ (८३) तोमैं तू इनमैं ॥ तू० ॥३॥ बुधजन जानपनौ ही अपनौ, तज ममता जन जनमैं ॥ तू०॥४॥ (१२००) राग-सिंधड़ा। हो चेतन अभी चेत लै, मर जानेकी गम क्या ॥ हो. ॥ टेक । मानुप है गाफिल नहिं रहना, आपा आप पि. छान लै ॥ हो० ॥१॥ सिरंडा हो विपयनसौं लपटा, दुख पावैगा जान दै। आगें भवमैं क्या तू करैगा, ताका जतन विचारि लै ॥ हो० ॥२॥ जिनवरकी वानी उर धारौ, मिथ्या मोह निवारि लै। वुधजन अपना परका भला करि, समता सुखकर धारि लै । हो०॥ ३ ॥ ___ (२०१) वूड्यौ रे भोळा जीव, मूरख वृड्यौ रे ॥वूड्यौ रे ॥ टेक ॥ जिनधर्मामृत छोड़िक रे, पीवत जहर मिथ्यात । आन देव पूजत फिर्यो, सुन्यौ कुगुरुकी वात ॥वूड्यौ रे० ॥१॥ पेट भरनके कारनैं रे, करौ अनीति अज्ञान । चोरी चुगली झूठी वकि, हरै हरखिक प्रान ॥ वूड्यौ० ॥२॥ अरुचि हियाम धार लै रे, भोग भुजंग समान । वुधजन आतम परखि ल्यो, करि करि भेदविज्ञान ॥ वूड्यो० ॥ ३ ॥ (२०२) राग-सिंघड़ा। चेतन आयु थोरी रे, भोगमैं क्यों भुलायो रे। विषयमैं १ पागल।

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