Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( ८६ )
त्यागि मिथ्यात धारि समकितकौं, बुधजन है सुखदाई रे ॥ अब० ॥ ४ ॥
( २०७ )
राग - माच ।
जंमारा नी वे तेरा नाहक वीता ॥ जमारा० ॥ टेक ॥ या तौ धारी कुमतिड़ल्या दुख दीता भलां दुख दीता ॥ जमारा० ॥ १ ॥ धरम विसारि विषय सुख सेवत, अंमृत तजि विष लीता ॥ जमारा० ॥ २ ॥ आन देव सेया तजि जिनकौं, रह्या रीतेका रीता || जमारा० ॥ ३ ॥ अव बुधजन संवरकौं पकरौ, तासौं रहोगे नचीता ॥ जमारा० 11 8 11
( २०८ )
राग - खंमाच ।
हो जिय ज्ञानी रे ये ही सुणि जइयौ रे ॥ हो० ॥ टेक ॥ भ्रमतौ आयौ नरभवमाहीं, बिछुरत वार न लड्यौ रे ॥ हो० ॥ १ ॥ जो चेतै तौ ही सुख पावै, विन चेतैं दुख पइयौ रे ॥ हो० ॥ २ ॥ हित करिक्रै बुधजन भापत है, जिनसरधान करइयौ रे ॥ हो० ॥ ३ ॥
( २०९ )
राग - खंमाच ।
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गातां ध्यातां तारसी जी भरोसौ महावीरकौ ॥ गातां०
॥ टेक ॥ हेरि थक्यौ सबमाहीं ऐसौ, नाहीं कोऊ पीरको
॥ गातां० ॥ १ ॥ जे तिर गये ते इनके जपतैं, मेटि कर ।
१ जीवनसमय । २ कुमतिने ।
३०.
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