Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 103
________________ (८९) (२१५) राग-परज। करि करि कर्म इलाज, जीवाजी हो ल्यो मोखरौ॥ करि० ॥ टेक ॥ विधि दुष्टन सँग जगतमैं, पावत हो संताप । तीनलोककी प्रभुता लायक, रंक भये क्यों आप ॥ करि० ॥१॥निज स्वभावमैं लीन होयक, रागरु-दोष मिटाय । वुधजन विलँव न कीजिये हो, फेर न या परजाय । करि० ॥२॥ ___ राग-अडाणों। गहो नी धर्म, नित आयु घटै जी ॥ गहो० ॥ टेक।। याभव सुख परभव सुख है है, पूर्व कमाये कर्म कटेजी। गहो० ॥१॥ तन तेरेकी रीति निरखि लै, पोषत पोपत जोर हटै जी। मात तात सुत झूठे जगके, जम टेरै तव नाहि नैटै जी ॥ गहो० ॥ २॥ लाभ जतनमैं दिन मति खोवै, मिलि है जो तेरे लेख पटै जी । वुधजन जतन विचारौ ऐसा, जासौं अगली विपति मिटै जी ॥गहो० ॥३॥ (२१७) . यो मन मेरौ निपट हठीलो॥ यौ० ॥ टेक ॥ कहा करूं वरज्यौ न रहत है, दौरि उठत जैसैं सर्प उकीली । यौ० ॥१॥ वारंवार सिखावत श्रीगुरु, यौ नहिं मानत गज गरवीलौ । दुख पावत तौहू नहिं ध्यावत, बुधजन निजपद अचल नवीलो ।। यौ०॥२॥ १लो न सहज सुख मोक्षका ? २ गहो न-ग्रहण कर लो न ? । ३ इकार नहीं करता है । ४ विना कीला हुआ। ५ नवीन । -

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