Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ ( ९५ ) (0330)~ ऐसे गुरुके गुननकौं गावौ भविया ॥ ऐसे० ॥ टेक ॥ सदन त्यागि वनवास कियौ है, तन धन परिजन छोरि दिया ॥ ऐसे० ॥ १ ॥ पोप निशा सरिता तट बैठे, नगनरूप जिन ध्यान लिया | ऐसे० ॥ २ ॥ जेठ दिवस गिरि ऊपर ठाड़े, सूरज - सनमुख वदन किया | ऐसे ० ॥ ३ ॥ विरख तल सावन जब वरपत, डांस मछरकी विपति सया ॥ ऐसे० || ४ || शत्रु मित्र समभाव लये तिन, करुणावत्सल जीवदया | ऐसे० ॥ ५ ॥ वाघ दुष्ट नर दोष करें तव, ध्यानथकी नहिं भाग गया ॥ ऐसे० ॥ ६ ॥ विरत विना (१) भोजन नहिं जाचैं, भूख सहत वपु सूख गया ॥ ऐसे० ॥ ७ ॥ रतनत्रयजुत धर्म धेरै दश, निज पर - णति सुख मगन ठया ॥ ऐसे० ॥ ८ ॥ अहनिशि मुनिकौं वंदन मेरी, कर्म शत्रु जग जीति लया ॥ ऐसे० ॥ ९ ॥ कव दर्शन व्है ऐसे गुरुकौ, बुधजनके उर हरष भया ॥ ऐसे० ॥ १० ॥ (( २३१ ) राग - कालिंगड़ा । मेरा तुमीसौं मन लगा ॥ मेरा० ॥ टेक ॥ याद नहिं भूल दावो सुणा (?), निशि दिन आनंद पगा ॥ मेरा० ॥ १ ॥ इस दुनियां विच ढूंढ थका मैं हो साई, तुम विन कोइ न सगा ॥ मेरा० ॥ २ ॥ शांत भया उर तुम वच सुनतां, हो साई जन्मांतर दुख दगा ॥ मेरा० ॥ ३ ॥ थारे चरन

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115