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(९६) विच चित बुधजनका, हो सांई निशिदिन रंग रगा ॥ मेरा० ॥४॥
(२३२) म्हारा जी श्रीजी मेरा भला हो किया।म्हारा जी०॥ टेक ॥ दुखिया था मैं नादिकालका, ताकौँ तुमने सुखी किया ।। म्हारा जी० ॥१॥ अव लों मिले तिन मो भरमाया, ज्ञान ध्यानको भूलि गया। तुम निरखत मेरा संशय भाग्या, निज पद निजमें पाय लिया ॥ म्हारा जी०॥२॥ पर उपगारी सव सरदारी, या लखि वुधजन शरन गया। ज्ञान विना मैंने क्रम वांधे, तिनकौं खोलौ कीजे भया । म्हारा'जी० ॥३॥
(२३३)
राग-केसरां। देख्यौ थारौ सुद्ध सरूप रे, जिया म्हारा, जानिक दर्पण ऊजलो रे लाल जिया ॥ देख्यौ०॥ टेक ॥ यौ ही थारौ सहज स्वभाव रे, जिया म्हारा । सव आ झलकै ज्ञानमैं, लाल जिया । देख्यौ० ॥ १॥ करि करि ममत कुवाण रे, जिया म्हारा । तू गति गति मरतो फिरे, लाल जिया ॥ देख्यौ० ॥२॥ इन्द्री मन वसि आन रे, जिया म्हारा। ये ना जग जालमैं, लाल जिया ॥ देख्यौ०॥३॥ थारै देको ठेठको मिलाप रे जिया म्हारा। तुही छुड़ावै तौ छुटै लाल जिया । देख्यौ० ॥ ४ ॥ वुधजन आयौ संभाल रे १ कर्म । २ जैसा । ३ बुरी आदत । ४ देहका । ५ हमेशाका ।