Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 112
________________ (२३९) जियरा रे तू तौ भोग लुभावै काल गमावै तौ या भली वात नहीं ॥ जियरा० ॥ टेक ॥ पापकौ नाहीं डर डोलता घर घर मूरखकौं सुध नाहिं, बंध वधाई ॥ जियराव ॥१॥ चौरासीमाहिं फिरि हुवो आरज नर, क्यों न करे निज काज विपतिमैं कौन सहाई ॥ जियरा० ॥२॥ जिनपद बंदि सिर तत्त्व प्रतीत कर, वुधजन सुखदाई मुक्ति लहाई॥ जियरा०॥३॥ ..( २४०) संग-जंगला। अब जग जीता वे मानूं ॥ अव० ॥ टेक ॥ सांत छवी थांकी जी, निरखते नैना हो साईं। विसर गया छा सो निधि लीता वे मानूं ॥ अब० ॥१॥धन्नि घरी म्हांकी जी, चर ननकू सिर नाया । वुधजनकौं थे कृतकृत कीता वे मानूं ॥ अव०॥२॥ (२४१) मैं तौ अयाना थाँनै ना जाना, जानै जो भला जया सो।। मैं० ॥ टेक ॥ विन जानै दुख गति गतिमाहीं, लया। काल अनन्तेकी तू जाना ।। मैं० ॥१॥ जिन जाना ते शिवपुरमाहीं, गया अष्ट कर्मनकौं भाना ॥ मैं० ॥ २, अव सिर नायके वुधजन साचे, हो साइया बहुति

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