Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 113
________________ (९८) दुख पाये हैरानी । तै०॥४॥ वुधजन औसर अजत्र मिल्यों है, धरि सरधा जिनवानी ॥ तै० ॥५॥ (३७) ___ राग-सोरठ। ठाइसौं गुनाको धारी जीव, काई जाना कत्र होसी ॥ ठाइसौं०॥टेक ॥ भोग विसनमें राचे माचे, मानुप भव यों ही खोसी । ठाइसौं०॥१॥धारि उदासी | वनवासी, निज सुखमें कर संतोसी । सांत सुभाव विमल जलसेती, भव भवके पातक घोसी ।। ठाइसौं० ॥२॥ वदन निहारूं देन उर धारूं, ध्यान धरूं मन ईकोसी । ऐसी दशा कीजे बुंघसनकी, ज्या हो जाऊं निरदोसी ॥ठाईसौं ॥३॥ ... (२३८) राग-परज । तू आतम निरभव डोलि नी । मोह गहल विच बात विगड़ती, मिथ्याभ्रम तजि घोलि नी ।। तू० ॥ टेक ॥ तू चंतन यो जड़ रूपी है, या उरमाहीं तोलि नी । तन अनन्त धारे छोड़े ते, ये अनादिका भोलि नी ।। तू० ॥ १ पिरद्रव्य लेवतें दुख पार्व,राजगजनका (१)वोलि नी। यातें परतें ममत न करिये, कर लें ऐसा कोलि नी॥तू० ॥२॥ उपजे विनस जर मरै सो, पुदगलका झकझोलि नी! तू अविनाशी जिनवर भासी, बुधजन दिल विच खोलि नी । तु०॥३॥ ना२८ मूलगुणाचा वारी मानि। लन अर्थान निर्भर होकर

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