Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
(९४)
(१२८)
राग-जैजैवंती। बोयो रे जन्म यौ ही, नीठ नीठ पायौ छै भाई ॥ ॥बोयौ०॥ टेक ॥ जोयौ नाहीं हेत वैन, जिनवर गायौ छै। धोयौ नाहिं पाप मैल, खोयौ पुन्य कुमायौ छै ॥ बोयौ० ॥१॥ सोयौ तूं पराई सेज, गोयौ माल बिरानौं छै। झूठ वोलि पीड़ि प्राणी, विभव बढ़ायौ छै । बोयो० ॥२॥मरि सो अनन्त काल, थावर वनायौ छै । अणुसी मिनख भव, काकताल पायौ छै ॥ वोयौ० ॥३॥ जो बुध अवै चेते, तौ न गमायौ छै। जिन पूज व्रत पाल, सिवसुखदायो छ । ॥ वोयौ०॥४॥
(२२९)
राग-बिलावल। धन्य मुदत्त मुनि वानिसुनाई। धन्य० ॥ टेक । मित्र कल्यान मिले मो अव ही, तिन मोहि मुनिकी छवि दरसाई ॥ धन्य० ॥१॥ टरत शिकार स्वानगन छोड़े, सो अघ क्यौं हु न मिटत कदाई । ता कारन सिर छेदूं मेरी, सो मुनि मेरी विपति मिटाई ॥ धन्य० ॥२॥ भूपजसोमति लखि अति हरष्यौ, उर तत्त्वारथ सरधा आई । मित्र सहित पुनि पंच शतक नृप, भोग विमुख है दिच्छा पाई ॥धनि०॥ ३॥ कुँवर अभयरुचि अर भगनीजुत, क्षुल्लक भये पुनि हुए मुनिराई । जोगी देवी मारदत्त नृप, वुधजन सुलटे सुरपद पाई ॥ धनि० ॥४॥ ' १ खोया । २ कठिनाईसे । ३ देखा।

Page Navigation
1 ... 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115