Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
( ९२ )
गोवै रे ॥ समझ० || २ || नरभव रतन पाय नहिं समझै, सो दधि वोवै रे । निज-सुभाव-सुध - वारि करममल, बुधजन धोवै रे ॥ समझ० ॥ ३ ॥
( २२३ ) राग - सोरठ।
आज लग्यौ है उमाहौ यो मनमैं, संग वुरौ, करमनकौ हरेस्यां ॥ आज० ॥ टेक ॥ तीनलोकपति बंदत जाकौं, तिनके पद- पंकज-रज परस्यां ॥ आज० ॥ १ ॥ सुनि जिनवानी बात पिछानी, संशय मोह भरम परिहरस्यां ॥ आज० ॥ २ ॥ परसँग त्यागि पाय निज सम्पति, बुधजन सुखसौं शिवतिय वरस्यां ॥ आज० ॥ ३ ॥
( २२४ )
हे देखो भोळौ वरज्यों न मानै, यौ जीव विषयांरो भातौ ॥ देखो ० ॥ टेक ॥ परम दयाल सिखावत हितकौं, यौ विपरीत पिछानै ॥ हे० ॥ १ ॥ परघर गमन करत निशि वासर, अपनी बुधि नहिं जानै । दुखी भयौ खोयौ सब जिनतैं, तिनहीसौं रति आनै ॥ हे० ॥ २ ॥ भाग अपूरव उदय भये तव, भैंटे श्रीजिन थाने । तुम सरधान धारि उर बुधजन, पासी शिवसुख-थानै ॥ हे० ॥ ३ ॥ (४२२५)
हो देवाधिदेव म्हारी, अरज सुनौ जी ॥ हो० ॥ टेक ॥ नरकनका दुःख कहौ, कौलौ भनौं जी । एकलेकै
१ उदधि - समुद्र । २ हरूंगा-नष्ट करूंगा । ३ स्पर्श करुगा । ४ परिहरण करूंगा, नष्ट करूंगा । ५ वरण करूंगा - व्याहूंगा । ६ विषयोका उन्मत । ७ 1८ ਹਰਿਆ 1

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115