Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
(८८) आपनपो करि जानै छै॥ मान० ॥१॥ आप अकरता थाप हियामैं, पाप करत नहिं छानै छै। अशुभ तजत है शुभ आदरिकै, शुद्ध भाव नहिं आनै छै॥ मान० ॥२॥ दृव्य अभेदमैं भेद कल्पकै, अजथा रीति वखानै छै ।भेद अभेदी एक अनेकी, वुधजन दोऊ ठानै छै। मान० ॥३॥
(२१३)
राग-सिद्धकी खंमाच तेतालो। मुजनूं जिन दीठा प्यारा वे, ध्यान लगाय उरमाहिं निहारा ॥मुज,०॥ टेक॥ और सकल स्वारथके साथी, विन स्वारथ ये म्हारा ॥ मुजनूं०॥१॥ आन देव परिगृहके धारी,ये परिगृह” न्यारा॥ मुजनूं०॥२॥ सकल जगत जन राग बढ़ावत, ये प्रभु राग निवारा ॥ मुजj०॥३॥ चरन शरन जॉचत है बुधजन, जव लौं वै निरवारा॥मुज०॥४॥
(२१४) जीवा जी थाँनै किण विधि राखां समझाय, हो जी म्हारा हो जी ॥ जीवा जी० ॥ टेक ॥ घणां दिनांका विगज्या तीवण, कुमति रही लपटाय ॥ जीवा जी० ॥१॥ यातौ थाने पर घर राखै, लालच विसन लगाय । मोमदिरातें किया बावला, दीना रतन गमाय ।। जीवा जी०॥ ॥२॥ एक स्यात मुझरूप निहारी, निज घरमाहीं आया बुधजन अविचल सुख पाचौगे, सब संकट मिट जाय ॥ जीवा जी०॥३॥
१ मुझको । २ दिखा । ३ शाक। ४ मोहरूपी शरावसे । ५ छनभर ।

Page Navigation
1 ... 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115